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________________ - रत्नदीप यार कुछ चारका समय था। अवधूतकी वह सुबह थी। वह अपने आपकी खोजमें, आँखे मंदके पनासनमें स्थिर हो गया। खोजकी रफतारमें उन्होंने देखा तो सामने अपना गुरु दीखाली दीया। पूज्य सुखसागरजी महाराज । आपने कुछ बरसों पहेले इस दुनिया छोड़ दी थी। गुरुको देखते ही विनयी शिष्प उठ खड़ा हुआ । सादर वंदनाकी और सेवाकी आज्ञा मांगी। गुरुने अपने शिष्यको जींदगीको सुधार और विकासके लिए तेर तत्वों पर बहुमूल्य उपदेश दीया और अंतर्ध्यान हो गये। गुरुने कहा। शिष्यने लिखा । एक दिन वह 'गुरुबोध' नामका ग्रंथ बन गया। यह ग्रंथ नव संस्करण होकर शीघ्र प्रकाशीत होनेवाला है। यह ग्रंथकी आत्मा तो वही रहेगी लेकिन उनका कलेवर बदला जायगा । नये रूपमें, नमे ढंगमें, नाम में भी वह नया रहेगा। जो 'गुरुबोध' था अब वह रत्नदीप बन जायगा। गुजराती भाषामें था और वही भाषामें ही रहेगा। आप यह ग्रंथ अवश्य पढ़ना। इसमें नई राह है, नई रोशनी है। --संपादक। TERTACamah NARY TAN.
SR No.522153
Book TitleBuddhiprabha 1964 03 SrNo 53
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunvant Shah
PublisherGunvant Shah
Publication Year1964
Total Pages64
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Buddhiprabha, & India
File Size2 MB
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