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बुद्धिप्रभा
[ता. १०-१०-१९६३
राहीकी मंजिल
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(ले० : श्री शंकरदयालसिंहजी एम. ए., साहित्याल ) [एक ऐसा गही, अपनी लगनका पक्का धुरी, एक ऐमी मंजिल. जहां हम सबको पहुंचना चाहिये, पाभो! हम सब ऐपा राही बने। वह मजिट पर हम ना पहुंचे। -सं०]
राही बढ़ा जा रहा था। राह और एक स्थान ऐसा आया जहाँ कम रही है या बढ़ रही है बिना- सिवा उसके न तो कोई पश और न इसकी परवा किये। रास्ते में बाधाएँ कोई पंछी! न कहीं नार और न आयीं गयीं। कॉटॉपर फूलसे घरण वायुकी सनसनाहट । न कोई जोब, धरने पड़े और पग-पगपर नयी न जन्तु। और राही निराश हो यातनाएँ सामने रहीं।
बैठना ही चाहता था कि कर्ण पुटोंको राहमें और भी किसने राही मिले, फाइती हुई आवाज बायो--- कौन हो ? परन्तु सबकी आँखों में निराशाकी -राही। तसवीर दिखलायी दो । राहीने सबोंसे
-कहाँ जाओगे? "पूछा-कहाँ जाओगे?
~~-मंजिलतक। उत्तर मिला-जहाँ जाना है। और जब इससे पूछा गया तुम
-~-तो बैठने क्यों लगे? छिः । कहाँ जाओगे?
मंजिलतक पहुंचोबाले राही क्या __-जहाँ मंजिल है, जहाँ लक्ष्य है. इतनी जल्दी अपनी हिम्मत खो जहाँ किनारा है।
' बैठते हैं। और वह बढ़ता ही गया। शूल राहीने आगे-पोछे. ऊपर-नीचे और फूल दोनोंको रौंदता हुमा चारों ओर देखा । सिवा अन्यके कहीं गुलाब और कौटा दोनोको पददलित कुछ नहीं दिखायी दिया। उसने करता हुआ। पत्थर और पानी गरजकर पूछा---तुम कौन हो? दोनोंको बाँधता हुआ।
--मैं, मैं अन्धोंको प्रकाश देने. ----- दीपोत्सवी अंक -