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________________ ता. १०-१०-१९६३] बुद्धिग्रमा योगी बनना जरूरी है। कर्मयोगियों को और सदाचार प्रवृत्तियों को, शरीरका वर्तमानमें जो जो औत्सर्गीक और नाश भी हो जाय तो भी सस्याअपबादिक धर्म प्रवृत्ति करने की है वे प्रहसे पीछे मुह मोड़ना नहीं करनी चाहिये । और संप. प्रेम, ऐक्य चाहिये। मत्य के लिए जान भी करवान आदिकी आध्यात्मिक शक्ति हांसल करना पड़े तो कर्मयोगियोंको डरना करके स्पर्धा में मभी देशों में अग्रीम नहीं चाहिये। अगर आगे बताये रहना चाहिये । जैनधर्म का पुनरुद्धार इस तरह अपना जीवन बसर करो, हो ऐसे सर्व मिद्धांत ज्ञाता बानो अगर ऐसा नहीं जी सकते हो तो महात्माए बने ऐसी पाठशालाओं की अपने स्थानको दूसरोंको लेने दो स्थापना करनी चाहिये और पठन लेकिन नपुंसक और वर्णशंकर जींदगी पाठन आदि कर्म भी करना जरूरी लेकर न जीया करो। जिस तरह हे । प्रमाद, विकथा, रंगराग, विषय सूखा, निकम्मा पेड दूसरे जनम लेने द्धि. स्वार्थ दृष्टिका नाश करके हर वाले पेदको सहयोग देता है और ईमेश बोयवान बनना चाहिये। एक अपना स्थान छोड़ देना है, उसी क्षणके लिए भी प्रमाव करना नहीं तरह सत्य कर्मयोगी बनके सभी चाहिये। सभी इन्सानों में आत्म- प्रशस्त कार्य करना चाहिये। सचा, शक्तिका जन्म हो ऐसा करना चाहिये। धन, शरीर, विद्या और ज्ञानबल असंख्य कर्मयोगी बने ऐसा उपाय आदि जो जो बल प्राप्त किये हो लेना चाहिये। अध्यात्म ज्ञान प्राप्त उनको अन्योंके हितके लिए इस्तेमाल करके, संकुल और रूढिगत क्रिया- करना चाहिये। उसमें मखीचूस नहीं धर्ममें न रहकर, विशद् दृष्टिसे सभी बनना चाहिए। जैन धर्म और जैन प्रकारके व्यवहारिक और धार्मिक धर्मियों की पड़तीन हो जाय इसलिये कर्तव्य करना चाहिये। सामाजिक सदा सजाग बनके सुयोग्य कार्य राष्ट्रीय योग्य कार्यों में अपने अधिकारके करना चाहिये। मुताबिक, स्वजन हितार्थ अपना ('कर्मयोगकी' की प्रस्तावना से हिस्सा देना चाहिये । सधे विचार उद्धृत पृ० ३९ से ४०) ----- दीपोत्सवी अंक ---------
SR No.522148
Book TitleBuddhiprabha 1963 10 SrNo 48
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunvant Shah
PublisherGunvant Shah
Publication Year1963
Total Pages94
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Buddhiprabha, & India
File Size2 MB
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