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अपभ्रंश भारती 21
अर्थ
1.1
1.2
1.3
1.4
1.5
1.6
1.7
1.8
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भव भव में आशा के जाल का बंधन टूटे (और) मोह का जाल नष्ट होवे । भव-भव में श्रावककुल में (मेरा) जन्म हो, चतुर्विध संघ ( मुनि - आर्यिका, श्रावक-श्राविका) की संगति होवे और पाप कर्म (रूपी मल ) संशोधित होवे । भव भव में (मुझ जैसे ) आसक्ति में डूबे हुए ( मूढ़, मुग्ध) जनों की मृत्यु पूज्य ऋषि - गुरु के संबोधन से (संबोधनपूर्वक) होवे ।
उपेक्षित
भव-भव में गुणवान - दयावान के द्वारा दीन- करुण (दया के पात्र ) (जनों) के प्रति प्रेम बढ़े।
1.10 भव भव में (मेरे) व्रत (करने ) योग्य ( व्रत करने में समर्थ) शरीर उत्पन्न होवे (और) तपस्या की अग्नि के ताप से उस (शरीर) का विच्छेद किया जाये (अर्थात् तपस्यापूर्वक देहत्याग हो ) ।
1.11 (मेरी) धन (स्थावर सम्पत्ति में), घर-परिवार में अधिक प्रवृत्ति न होवे, भव भव में मन इन्द्रिय - निग्रह कर (नियंत्रण, संयम कर), सब छोड़कर ( त्याग कर ) स्थिर होवे ।
1.9
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भव-भव में (प्रत्येक भव में) (मैं) जहाँ नई-नई देह में ( उत्पन्न ) होऊँ वहाँ जिनशासन में (मेरी) भक्ति होवे (और) दुःख के विनाश में लक्ष्य ( होवे ) | अन्य (दूसरे) मनुष्य भव में (भी) मान (अहंकार) से मुक्त यह ( जिनशासन ही) निरन्तर माँगा जाने योग्य है (माँगा जाना चाहिये) ।
भव भव में (मेरा) चित्त वंचक ( मायावी, धोखा देनेवाले) सिद्धान्तों से उदासीन (विमुख होवे ) तथा जिनागम ( जैन शास्त्रों व जिनशासन) में अभिमुख ( प्रवृत्त) होवे ।
भव भव में (मेरे) प्रतिपक्षी (प्रतिद्वन्द्वी, विरोधी) पंच - इन्द्रियों का बल ( सामर्थ्य) ध्वस्त होवे और (मेरी) विमल (शुद्ध) बुद्धि उत्पन्न होवे । भव भव में मेरे विषय - कषाय-राग छूटें (और) तीन गुप्तियों में (मेरी) प्रवृत्ति होवे ( प्रयत्न होवे ) ।
1.12 नारी के रूप में अनुरक्त (आसक्त) न होऊँ, (और) भव भव में मन (अन्तःकरण) शल्यरहित, पापरहित (निष्कलुष) होवे ।
1.13 भव-भव में (मन) पन्द्रह प्रमादों से दूर किया हुआ होवे, दिन स्वाध्याय में जावे (व्यतीत होवे ) ।