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________________ अपभ्रंश भारती 21 वनों-कन्दराओं-पर्वतों में निवास करते हैं। उनके घर, वस्त्र, कुटुम्ब-परिवार कुछ नहीं होता। मनुष्यों की ऊँचाई घटते-घटते साढ़े तीन हाथ तथा आयु 20 वर्ष तक रह जाती है। इस काल की अवधि भी 21,000 वर्ष है। यह काल अवसर्पिणी काल का अन्तिम काल होता है। कालचक्र अब नीचे से ऊपर अर्थात् अवनति से उन्नति की ओर अग्रसर है अतः इसके बाद उत्सर्पिणी काल प्रारंभ होगा। उत्सर्पिणी में सबसे पहले दुसमा-दुसमा प्रारंभ होगा, फिर दुसमा, दुसमा-सुसमा, सुसमा-दुसमा, सुसमा और सुसमा-सुसमा होंगे अर्थात् उत्सर्पिणी में छठा, पाँचवाँ, चौथा, तीसरा, दूसरा व पहला यह क्रम रहता है। इस प्रकार काल सर्प की चाल से गतिमान होता है, संभवतः इसी कारण इसे अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी कहा जाता है। इन दोनों कालों की समय-अवधि दस-दस कोडाकोडी सागर है। दोनों कालों का सम्मिलित समय ‘एक कल्प' कहलाता है। इस लघु रचना की पाण्डुलिपि उपलब्ध कराने के लिए जैनविद्या संस्थान समिति के संयोजक एवं अपभ्रंश साहित्य अकादमी के निदेशक डॉ. कमलचन्दजी सोगानी की आभारी हूँ। अपभ्रंश साहित्य अकादमी की शोध-पत्रिका 'अपभ्रंश भारती' में इसे प्रकाशित करने के लिए मैं पत्रिका के सम्पादक एवं सम्पादक-मण्डल के प्रति आभार व्यक्त करती हूँ। हम-आप इस छोटी-सी रचना को पढ़ें, काल/समय का स्वरूप व गति समझकर, समय का सदुपयोग करते हुए कालजयी बनने का प्रयास करें, उस ओर अग्रसर हों - यही भावना है।
SR No.521864
Book TitleApbhramsa Bharti 2014 21
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2014
Total Pages126
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
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