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कलमजीवी, कलाजीवी और पर-हितार्थजीवी होने से कविमनीषी परिभूस्वयंभू' कहलाने के अधिकारी पात्र थे।"
“सिरीपाल मयणसुंदरीचरिय (सिद्धचक्र कथा) नामक पाण्डुलिपि दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी द्वारा संचालित जैनविद्या संस्थान में संगृहीत पाण्डुलिपि में से एक है। इसकी वेष्टन संख्या 1282 है। इसमें राजा श्रीपाल एवं उनकी रानी नासुन्दरी की कथा एवं उनके माध्यम से सिद्धचक्र पूजा के माहात्म्य का वर्णन है। अपभ्रंश भाषा में रचित इस कथा के रचनाकार ‘पंडित णरसेण' हैं। यह कथा 96 पृष्ठों (पत्र 42) में निबद्ध है।"
“कालावली की जयमाल' अपभ्रंश भाषा में रचित एक लघु रचना है। इसमें जैन दर्शन में मान्य काल (समय) के परिणमन की अवधारणा का संक्षेप में वर्णन किया गया
“यह रचना दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी द्वारा संचालित 'जैन विद्या संस्थान' के पाण्डुलिपि भण्डार में संगृहीत गुटका संख्या 55, वेष्टन संख्या 253 में पृष्ठ संख्या 6 से 9 पर लिपिबद्ध है। 'काल' अर्थात् 'समय', जिसके निमित्त या सहयोग से वस्तुओं का परिवर्तन ज्ञात होता है। संसार में घटित प्रत्येक क्रिया-कलाप, घटना काल/ समय के परिप्रेक्ष्य में अभिव्यक्त होती है, प्रकट होती है। काल वस्तुओं, द्रव्यों के परिणमन, परिवर्तन में एक उदासीन सहायक है, निमित्त है।" ___ अपभ्रंश साहित्य अकादमी अपभ्रंश भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए विविध उपक्रमों के साथ प्रयासरत है। अपभ्रंश भाषा की पाण्डुलिपियों की प्रतिलिपि, सम्पादन-अर्थ आदि करवाकर उन्हें प्रकाशित करना भी उनमें एक प्रमुख उपक्रम है। इस क्रम में विगत अंकों की भाँति इस अंक में 'सिरिपाल मयणसुन्दरी चरिय' के एक अंश की प्रतिलिपि का प्रकाशन किया गया है। साथ ही, अपभ्रंश भाषा की ही एक लघु रचना 'कालावली की जयमाल' का अर्थ-सहित प्रकाशन किया गया है। ___ इस अंक के प्रकाशन में अपने लेख भेजकर सहयोग प्रदान करनेवाले लेखकों के प्रति आभारी हैं।
संस्थान समिति, सम्पादक मण्डल एवं सहयोगी सम्पादक व कार्यकर्ताओं के भी आभारी हैं। मुद्रण के लिए जयपुर प्रिन्टर्स प्राइवेट लिमिटेड, जयपुर धन्यवादाह है।
- डॉ. कमलचंद सोगाणी
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