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अपभ्रंश भारती 19
धर्म-भावना खंति मूलु मद्दव गुण जुत्तउ अज्जव संजमवाय णिरुत्तउ। सच्च सउच्चालंकरि वंभचेर' अकिंचणत्तव भूसिउ। दहलक्खणु सिवसुह जणणु करहु धम्मु वियहु जिणभासिउ।
णविवि चलण मुणिसुव्वयहो॥19॥
बोधिदुर्लभ-भावना देउ जिणिंदु धम्मु दय सारउ रिसिगुरु विसयकसायणिवारउ। वोहिलाहु सिवगयगमणु अंतयालि संलेहणमरणें। जिणगुणसंपय सुहु हवउ दंसण णाण चरण तवचरणं।
णविवि चलण मुणिसुव्वयहो॥20॥
बोधिदुर्लभ-भावना इय वारह भावण भावंतह परमु चित्ति वइराउ धरंतहं। धम्में मणु णिच्चलु हवइ सुक्कझाण परिणइ संपज्जइ। पर परत्तसंभावणा' लहिज्जइ. अप्पे अप्पसरूउ मुणिज्जइ।
णविवि चलण मुणिसुव्वयहो॥21॥
ग्रन्थ एवं ग्रन्थकार-परिचय एवं कामना एहरासु जिणवर पयभत्ते विरइउ कुंभिनयरि णिवसंते। जोगदेव पंडिउ पुर उत्तें' विसयसेण मुणिवर पयभतें। पढइ सुणइ जो सद्दहइ सो णरु सिव सुह लहइ पयत्तें। णविवि चलण मुणिसुव्वयहो।।22॥
इति श्री मुनिसुव्रतानुप्रेक्षा