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अपभ्रंश भारती 19
अशरण-भावना धरिवि' णियत्तइ वहुधण-धण्णइं हय-गय-रह-मणिरयण-सुवण्णई। पुत्त-कलत्तइं वंधवइ वाहुडंति पिउवणहु वियाणिवि। सुकिउ-दुकिउ जं किंपि किउ तं परिसरिउ' जाइवि' णियाणिं।
णविवि चलण मुणिसुव्वयहो ॥3॥
अशरण-भावना मे घरु मे धणु मे सुहिसयणइ मे गय मे मय मे रह। मे मणिरयणई मे भंडारइ मणहरइ मे मे मे करंतु घर पडियउ। किंपि न चेयइ मूढमइ मिच्छामोह कसाएं जडियउ।
णविवि चलण मुणिसुव्वयहो॥4॥
संसार-भावना अज्जु कल्लि परुप्परहं' परारिहं चिंतइ यहु जिउ धुव संसारहं। वहु वियप्प-संकप्परउ आस-सहासहिं अत्थि' वालो। जिम मच्छह तिम माणुसहं पडइ अचिंतिउ मछइ जालु।
___णविवि चलण मुणिसुव्वयहो॥5॥
एकत्व-भावना पाउ कुटुंव-कजि जं' किज्जइ तं इक्कल्लई सव्व' सहिज्जइ। जहिं जहिं जोणिहि जाइ जिउ तहि तहि नवउ कुडंवु उपज्जइ। तहु कारणि भणु के तिरयह वहु आरंभ परिग्गहु किज्जइ।
णविवि चलण मुणिसुव्वयहो॥6॥