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________________ अपभ्रंश भारती 19 अत्यन्त संक्षिप्त परिचय दिया था। श्री अगरचन्द नाहटा प्रभृति विद्वानों ने भी अपने लेखों के माध्यम से यदा-कदा इसकी चर्चा की है। इस कथा की दो ताड़पत्र - प्रतियाँ जैसलमेर के ग्रंथभंडार में सुरक्षित हैं। संभव है, अन्यत्र भी इसकी प्रतियाँ हों । 40 विलासवती कथा के लेखक श्वेताम्बर जैन साधु सिद्धसेनसूरि थे । उनका गृहस्थ जीवन का नाम 'साधारण' था । इसलिए उन्हें 'साधारण सिद्धसेनसूरि' कहा जाता है। जैन - साहित्य में सिद्धसेन नामक चार विद्वान आचार्य हुए हैं। पहले आचार्य सिद्धसेन दिवाकर थे, दूसरे सिद्धसेन, तीसरे साधारण सिद्धसेन और चौथे सिद्धसेन सूरि । साधारण सिद्धसेन 'न्यायावतार' तथा 'सन्मति - तर्क' के रचयिताओं से अलग थे। इस प्रकार साधारण सिद्धसेन दार्शनिक सिद्धसेन सूरि से भिन्न थे। उनकी प्रसिद्धि केवल साहित्यिक रूप में मिलती है। कवि ने अनेक स्तुति, स्तोत्र, र आदि भी लिखे हैं, जिनमें से कुछ अब उपलब्ध नहीं हैं। स्तवन कवि सिद्धसेन मूल कुल के वाणिज्य तथा कौटिकगण वज्र शाखा में बप्पभट्टि सूरि की परम्परा के अन्तर्गत यशोभद्र सूरि गच्छ के विद्वान थे । कवि काव्यकला-मर्मज्ञ कवियों के वंश में उत्पन्न हुआ था। उसकी प्रसिद्धि साधारण नाम से अधिक थी । यद्यपि काव्य-रचना में निपुण कवि की ख्याति उसके साधु-दीक्षा लेने के पूर्व ही फैल चुकी थी, किंतु 'विलासवई कहा' की रचना उस मुनि बन जाने के बाद की थी । यह कथा - काव्य मीनमाल कुल के श्रेष्ठी लक्ष्मीकर शाह के अनुरोध से लिखा गया था । रचनाकार गुजरात के ही किसी भाग का निवासी था । इस प्रेमाख्यानक कथा - काव्य की रचना पौष चतुर्दशी सोमवार को वि.सं. 1123 में गुजरात के धन्धुका नामक नगर में हुई थी।' संधि-बद्ध यह काव्य-ग्रंथ 3620 श्लोकप्रमाण है। इसमें ग्यारह संधियाँ हैं। पहली सन्धि में सनत्कुमार एवं विलासवती का समागम, दूसरी में विनयंवर - की सहायता, तीसरी में समुद्र - प्रवास में नौका भंग, चौथी में विद्याधरी - संयोग, पाँचवीं में विवाहवियोग, छठी में विद्या - साधना एवं सिद्धि, सातवीं में दुर्मुखवध, आठवीं में अनंग - रति विजय और राज्याभिषेक, नवीं में विनयंवर - संयोग, दसवीं में परिवार-मिलन तथा ग्यारहवीं में सनत्कुमार व विलासवती के निर्वाण-गमन का वर्णन हुआ है। इस प्रकार इस कथा - काव्य में विलासवती एवं सनत्कुमार की कथा अत्यन्त रोचक शैली में निबद्ध है । रचयिता ने इस कथा को आचार्य हरिभद्रसूरि कृत 'समराइच्च कहा' के आधार पर लिखी है। यह कथा उससे ज्यों की त्यों ली गई है, इसलिए कथा में कवि की कोई मौलिक उद्भावना नहीं दिखलाई पड़ती है, किंतु कथा का वियोग - वर्णन उसकी मौलिक कल्पना है। काव्य में ऐसे कई सुंदर चित्र हैं जो बिम्बाधारित सौन्दर्यबोध से युक्त हैं। प्रत्येक संधि में अलग-अलग स्थलों पर कवि ने प्रकृति-चित्रण के द्वारा मानव के आन्तरिक भावों को अभिव्यक्त किया है और इसी रूप में अनेक कार्य-व्यापारों का सुंदर चित्र अंकित किया है। साथ ही विभिन्न प्रसंगों में कवि ने मन की दशाओं का विशेष चित्रण किया है और कई मार्मिक भावों की रस-दशा को अभिव्यक्त करने में वह समर्थ हुआ है।
SR No.521862
Book TitleApbhramsa Bharti 2007 19
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages156
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
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