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अपभ्रंश भारती 19
एक महत्वपूर्ण बात इन स्तुतियों के संदर्भ में यह भी कही जा सकती है कि इनमें इस बात का महत्व नहीं है कि कौन किसकी स्तुति कर रहा है। जिन तीर्थंकरों की स्तुति की गई है उनमें चारित्रिक भिन्नता नहीं है, वे प्रायः गुणों में एक-से हैं। हनुमान या शिव या राम की तरह उनके गुणों और आचरण में भिन्नता नहीं है। न ही स्तुतिकर्ता के अनुसार कोई भिन्नता दिखाई देती है। स्तुतिकर्ता चाहे राम हो या रावण या सुग्रीव; निष्ठा, जिनदेव के विशेषण, स्तुतियों की भाषा-शैली आदि पर कोई प्रभाव पड़ता हुआ नहीं दिखाई देता।
काव्यात्मकता की दृष्टि से ये स्तुतिपरक प्रसंग स्वयम्भू की काव्यकला का श्रेष्ठ उदाहरण कहे जा सकते हैं। इन स्तुतियों में लयात्मकता का निर्वाह है। ये सभी स्तुतियाँ गेय हैं। 86वीं सन्धि में हनुमान के द्वारा की गई स्तुति इस दृष्टि से उदाहरणीय है -
जय जय जिणवरिन्द धरणिन्द णरिन्द सुरिन्द वन्दिया। जय जय चन्द खन्द वर विन्तर वहु विन्दाहिणन्दिया। जय जय वंभ संभु मण भंजय मयरद्वय विणासणा। जय जय सयल समग्ग दुब्भेय वयासिव चारु सासणा। 86.15।
अलंकारों का प्रचुर प्रयोग इन स्तुतियों में किया गया है। अनुप्रास, उपमा, रूपक, यमक, श्लेष का अधिक प्रयोग मिलता है। 'जिन' की स्तुति करते हुए कवि उन्हें सिद्धिरूपी वरांगना के अत्यन्त प्रिय, संयमरूपी गिरिशिखर पर उगनेवाले, सात महाभयरूपी अश्वों का दमन करनेवाला, ज्ञानरूपी आकाश में विचरण करनेवाला सूर्य कहता है।43 रावण द्वारा शान्तिनाथ की पूजा के प्रसंग में प्रत्येक अर्द्धाली में उपमा तथा श्लेष का साथ-साथ प्रयोग किया गया है। निस्संदेह यह कवि का काव्य-कौशल है। परन्तु कहीं-कहीं अलंकृत शैली भक्ति-भाव की अभिव्यक्ति में बाधक भी प्रतीत होने लगती है। 40वीं सन्धि के प्रारंभ में मुनिसुव्रतनाथ की वन्दना में यमक का प्रयोग इसी प्रकार का है। इसी प्रकार श्लेष अलंकार के प्रदर्शन के लिए ईश्वर की स्तुति में गाये गये गीत की तुलना प्रिय स्त्री तथा सुरत तत्व से करना बहुत उचित नहीं कहा जा सकता। परन्तु स्वयम्भू की काव्य-प्रतिभा के ये सहज उद्गार हैं, इसमें सन्देह नहीं। भिन्न-भिन्न छन्दों का प्रयोग इनमें किया गया है जो कि अपभ्रंश काव्य की एक प्रमख विशेषता है। समासबहुल शैली का प्रयोग भी कहीं-कहीं स्तुतियों में किया गया है। जहाँ यमक व श्लेष का साथसाथ प्रयोग है वहाँ शैली क्लिष्ट है, अन्यथा सरल, सहज शैली का प्रयोग इन स्तुतियों में किया गया है।
1. अपभ्रंश भाषा की शोध प्रवृत्तियाँ, डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री, पृ. 58-60 2. शब्दाथौ सहितौ काव्य गद्य-पद्य च तद्विधा।
संस्कृत प्राकृत चान्यदपभ्रंश इति त्रिधा। काव्यालंकार 1.16