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________________ 112 अपभ्रंश भारती 19 7. 'सुप्पउ भणई' म मेल्लि जिय, जिण गिरिचरण कराडि। को जाणइ कहि खणे पडइ, तुट्ट कयंतहो धाडि॥ अरि जिय तुव ‘सुप्पउ भणई', पाविय धंमु म मेल्लि। पेखंतहं सुहि-सज्जणहं, अवसु मरिव्वउ कल्लि ।।7।। अर्थ - सुप्रभ कहते हैं - हे जीव ! जिनेन्द्र (भगवान) के (बताये हुए) पवित्र आचरण को कठिन (समझकर) मत छोड़। कौन जानता है (कि) किस क्षण में यम/मृत्यु का आकस्मिक आक्रमण आ पड़े/टूट पड़े। हे जिय ! तेरे लिए सुप्रभ कहते हैं - प्राप्त (जिन-) धर्म को मत छोड़। सुखयुक्त देखे जाते हुए सज्जनों का (भी) कल मरा जाना निसन्दिग्ध (निश्चित) है। 8. जिम झाइज्जइ वलहउ, तिम जय जिय अरहंतु। ‘सुप्पउ भणइ' त माणुसहो, सुण्ण' घरंगणे इंतु ॥8॥ अर्थ - सुप्रभ कहते हैं - हे जीव ! (तुम्हारे द्वारा) जिस प्रकार प्रिय का ध्यान किया जाता है उस प्रकार (यदि) अरिहंत का ध्यान करो तो तुम्हारे घर-आँगन में ही स्वर्ग/मोक्ष हो जावे। 1. B. सग्गु परि C. सग्गु सग्ग = मोक्ष, मुक्ति। यहाँ 'C' प्रति के ‘सग्गु' शब्द के आधार से अर्थ किया गया है।
SR No.521862
Book TitleApbhramsa Bharti 2007 19
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages156
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
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