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________________ अपभ्रंश भारती 19 5. अह घरु करि दाणेण सहुं, अह तउ करि णिग्गंथु । विहि चुक्कउं 'सुप्पउ भणई', अरि जीव इत्थु न उत्थु ॥5॥ अर्थ ( हे नर !) यदि घर बनाते हो ( अर्थात् गृहस्थी बसाते हो ) तो दान के साथ ( बनाओ और ) यदि तप करते हो ( अर्थात् संन्यास धारण करते हो तो) निर्ग्रन्थ विधि से करो । सुप्रभ कहते हैं (यदि ) ( इन दोनों) विधि से चूकोगे तो हे जीव ! न यहाँ (गृहस्थी में कुछ पा सकोगे न वहाँ (कुछ पा सकोगे, अर्थात् न इधर के रहे न उधर के। ) - 6. 'सुप्पर भणियउ' रे धम्मियहु, पडहु म इंदियजालि । जसु मंगल सूरुग्गमणे, कंख णउ वियालि ॥6॥ 111 - सुप्रभ कहते हैं अर्थ हे धार्मिकजनो ! इन्द्रियों के जाल में (विषय-भोगों में ) मत पड़ो। (देखो !) सूर्य उदय के समय जिसका मंगल ( देखा जाता है) सायंकाल उसका कंकाल (भी शेष ) नहीं ( दिखता ) । -
SR No.521862
Book TitleApbhramsa Bharti 2007 19
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2007
Total Pages156
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size7 MB
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