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• धम्मु अहिंसा परमुजए। - इस जगत में अहिंसा ही परमधर्म है। • धम्मु अहिंसउ सद्दहहि। - अहिंसा धर्म की श्रद्धा करो। • जहिं परमधम्मु तहिं जीवदय। - जहाँ परम धर्म होगा जीवदया भी वहीं रहेगी। • विणु जीवदयाइ ण अत्थि धम्मु। - जीवदया के बिना धर्म नहीं होता। • विणएँ लच्छि-कित्ति पावइ। - विनय से लक्ष्मी और कीर्ति प्राप्त होती है। • विणु विणएण कवणु पावइ सिउ? - विनय (गुण) के बिना कौन शिव (कल्याण) पा सकता है? • अविणीयं किं संबोहिएण। - जो विनयहीन है उसे सम्बोधित करने से क्या फल? • विहवहो फलु दुत्थिय आसासणु। - वैभव का फल दीन-दुखियों को आश्वासन देना है।"
“कवि-कोकिल विद्यापति और उनकी कीर्तिलता दोनों परवर्ती अपभ्रंश की अत्यन्त मूल्यवान धरोहर हैं, अतः उन्हें यदि हम परवर्ती अपभ्रंश का 'महाकवि स्वयंभू' कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। भाषा-साहित्य के अध्ययन, अध्यापन और अनुसन्धान की दृष्टि से आज भी गद्य-पद्य से संवलित इस ऐतिहासिक कथा-काव्यकृति का अप्रतिम महत्त्व है। विस्मयकारिणी प्रतिभा के बल पर कवि ने इसमें मध्यकालीन भारतीय समाज और उसकी तत्कालीन आर्थिक, राजनीतिक परिस्थितियों को अपनी सीमा और समग्रता में रूपायित कर दिया है।"
"कवि-कोकिल विद्यापति की यह कविता कल भी मिथिलांचल के घर-घर में क्रीड़ा करती थी, आज भी करती है और आगे भी करती रहेगी। जार्ज अब्राहम, ग्रियर्सन ने उनके गीतों को देखकर अपनी पुस्तक - ‘एन इण्ट्रोडक्शन टू द मैथिली लैंग्वेज' (1881-82) में ठीक ही लिखा है - "कृष्ण में विश्वास और श्रद्धा का अभाव हो सकता है, लेकिन विद्यापति के गीतों के प्रति लोगों की आस्था और श्रद्धा कभी कम नहीं होगी।"
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