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अक्टूबर 2005-2006
अपभ्रंश भारती 17-18
योगसार दोधक
- जोगचन्द मुणि
1.
णिम्मल झाण परिट्ठिया कम्मकलंक डहेवि। अप्पा तद्धउ जेण परु ते परमप्प णवेवि॥1॥
घाइ चउक्कइ किउ विलउ णंत चउक्क पदिट्ठ। तहं जिणइंदहं पय णविवि अक्खमि कव्वु सुइट्ठ।।2।।
संसारहं अप्पा
भयभीयाहं मोक्खहं लालसियाह। संबोहण कयह दोहा एक्कमणाहं।।3।।
काल अणाइ अणाइ जिउ भवसायरु जि अणंतु। मिच्छादंसणि मोहियउं ण वि सुह दुक्ख जि पत्तु ॥4॥
5.
जई वीहिउ चउगइ गमण तो परभाव चएहि। अप्प भावहि णिम्मलउ जिम सिव सुक्खु लहेहिं।।5।।