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________________ अपभ्रंश भारती 17-18 49 जिह वारि-णिवन्धणे हत्थि-जूहु। जिह दुज्जण-जणे सज्जण-समूह। जिह किविण-णिहेलणे पणइ-विन्दु । जिह वहुल-पक्खें खय-दिवस-चन्दु। जिह सम्मइदंसणु दूर-भव्वें। जिह महुअरि-कुलु दुग्गन्धे रणे। जिह गुरु गरहिउ अण्णाण-कण्णे।। जिह परम-सोक्खु संसार-धम्में। जिह जीव-दया-वरु पाव कम्मे ।।4.1।। अर्थात् वह चक्ररत्न उसी तरह से उस नगरी में नहीं जा पारहा था जिस तरह से मूर्ख लोगों में सुकवि के वचन, ब्रह्मचारी के मुख में काम-शास्त्र का प्रवचन, गोठ में मणि और रत्नों का समूह, द्वार के निबन्धन में हस्तिसमूह, दुर्जनों के बीच में सज्जन, कृपण व्यक्ति के यहाँ भिक्षु, शुक्ल पक्ष में कृष्ण पक्ष का चन्द्रमा, दूर भव्यजन में सम्यक्दर्शन, दुर्गन्धित उपवन में भ्रमर, अन्यायशील जन में गुरु का उपदेश, सांसारिक धर्मों में मोक्ष-सुख, पापकर्म में उत्तम जीवदया प्रवेश नहीं कर सकता। ठीक उसी तरह से चक्रवर्ती भरत का रत्नचक्र अयोध्या नगरी में नहीं प्रवेश कर सका। कवि लोकाचार से अच्छी तरह से परिचित है। अपभ्रंश के इस कवि को जमाने से बहुत आगे माना जाना चाहिए, उसका एक उदाहरण सामने है- श्रीकण्ठ द्वारा कमलावती को ग्रहण करने का प्रसंग। कमलावती का पिता क्रोधित होता है तो उसका पूरा मन्त्रीमण्डल उससे कह उठता है कि श्रीकण्ठ या कमलावती का कोई दोष नहीं है (दोनों एक-दूसरे के योग्य व अनुरूप हैं) और फिर तुम भी तो किसी योग्यवर को ही तो देते, क्योंकि कन्याएँ दूसरे की ही पात्र होती हैं। परमेसर एत्थु अ खन्ति कउ। सव्वउ कण्णउ पर-भायणउ।।6.3.2।। इतना ही नहीं, लोक में किसी भी जगह के प्रस्थान पर शुभ-अशुभ, शकुनअपशकुन पर विचार किया जाता है। पउमचरिउ का कवि भी इस पर विचार करता है 'गमणु ण सुज्झइ महु मणहाँ' तं मालि सुमालि करेंहिँ धरइ। पेक्खु देव दुणि मित्ताइँ सिव कन्दह वायसु करगरइ॥8.2.9॥ पेक्खु कुहिणि विसहर-छिज्जन्ती। मोक्कल-केस णारि रोवन्ती॥
SR No.521861
Book TitleApbhramsa Bharti 2005 17 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2005
Total Pages106
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size6 MB
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