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________________ 11 अपभ्रंश भारती 17-18 धोते हैं, लेकिन उससे उत्पन्न कमलमाला देवताओं को चढ़ाई जाती है। दीपक स्वभाव से काला होता है पर उसकी शिखा सर्वत्र आलोक फैलाती है। स्पष्ट है कि स्त्रियाँ पुरुषों की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ हैं। इतना ही नहीं, निरर्थक लोकापवाद के कारण पुरुष निर्दोष स्त्री का परित्याग कर सकता है लेकिन स्त्री मृत्युपर्यन्त पुरुष का साथ वैसे ही नहीं छोड़ती जैसे लता पेड़ का सहारा मरते-मरते भी नहीं छोड़ती। मैं अपनी पवित्रता सिद्ध करने के लिए तत्पर हूँ । यदि आग मुझे जलाने में समर्थ हो तो जला दे ! 18 सीता की अग्निपरीक्षा के लिए गड्ढा खोदकर उसमें लकड़ियाँ भर दी गईं। सीता लकड़ियों के उस ढेर पर बैठ गई और अग्नि का आवाहन करते हुए उसने कहा'देवताओ और मनुष्यो ! आप लोग मेरा सतीत्व और राघव की दुष्टता देख लें । हे वैश्वानर ! तू भी जल जायेगा पर यदि मैं अपराधिनी होऊँ तो मुझे क्षमा मत करना । " स्वयंभू की सीता की यह गर्वोक्ति, यह आक्रोश, यह क्रोधावेग, यह विरोधी स्वर अग्निपरीक्षा के उपरान्त शान्त तो हो जाता है लेकिन इसकी गूँज मानो दिग्दिगन्त में, युगयुगान्तर तक फैल जाती है। यह स्वर समस्त मानवजाति को यह सन्देश देता है कि अन्याय-अत्याचार का विरोध अत्यावश्यक है। समाज का वह कमजोर पक्ष, जिसे युगोंयुगों से सबलों द्वारा दबाया जाता रहा है, सिर उठाकर अपना आक्रोश प्रकट करे, अपना स्वतन्त्र आत्मविकास करे, अपनी उपस्थिति दर्ज कराए, यातनाओं, अन्यायों, अत्याचारों का विरोध करे, तभी उसके स्वतन्त्र व्यक्तित्व का विकास सम्भव है। सीता के इस रूप और उन पर होनेवाले अन्याय को देखकर अग्निपरीक्षा के अवसर पर उपस्थित सभी व्यक्ति हा-हाकार करने लगे और राम को धिक्कारने लगे कि राम निष्ठुर, निराश, मायारत, अनर्थकारी और दुष्टबुद्धि हैं। पता नहीं, सीता देवी को होमकर वे कौन सी गति पायेंगे - णिडुर णिरासु मायारउ, दुक्किय-गारउ कूर - मइ । उ जाणहुँ सीय वहेविणु, रामु लहेसड़ कवण गइ ॥83.12.9 परन्तु अग्नि सीता को नहीं जला सकी। सीता की पवित्रता सिद्ध हुई । अन्ततः राम को अपने कृत्य पर पश्चात्ताप हुआ और उन्होंने सीता से क्षमा-याचना की - तो वोल्लिज्ज्इ राहव-चन्दें । 'णिक्कारणे खल- पिसुणहँ छन्दें । जं अवियप्पॆ मइँ अवमाणिय। अण्णु वि दुहु एवड्डु पराणिय ॥ तं परमेसरि महु मरुसेज्जहि । एक्क-वार अवराहु खमेज्जहि ।।83.16 अकारण दुष्ट चुगलखोरों के कहने में आकर मैंने जो तुम्हारी अवमानना की और जो तुम्हें इतना बड़ा दुःख सहन करना पड़ा है, हे परमेश्वरी! तुम उसके लिए मुझे
SR No.521861
Book TitleApbhramsa Bharti 2005 17 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2005
Total Pages106
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size6 MB
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