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________________ अपभ्रंश भारती 13-14 अक्टूबर 2001-2002 जैन फागु 83 की लोकपरकता - डॉ. शैलेन्द्रकुमार त्रिपाठी साधारणतः 'फल्गु' से फागु की व्युत्पत्ति मानी जाती है। 'अमरकोष' (अमरसिंह) के टीकाकार क्षीर स्वामी ने फल्गु की व्याख्या करते हुए लिखा है - 'वसन्त्यस्मिन् सुखं वस्तै भुवं वसन्तः । फल्गु देश्याम् ।' (कालवर्ग, 3.18) फल्गु का 'वसन्त' के साथ अभिन्न सम्बन्ध है । डॉ. गोविन्द रजनीश ने 'फल्गु' शब्द के तीन अर्थ बताये हैं- 1. बसन्त, 2. श्वेत नक्षत्र और 3. आरक्तवर्ण- इन तीनों का अर्थ वे वसन्त से सन्दर्भित बताते हैं । परन्तु ज्ञानमण्डल, वाराणसी से प्रकाशित 'पौराणिक कोश' के अनुसार 'फल्गु' (बिहार की एक पवित्र नदी जिसके तट पर 'गया' तीर्थ बना है । पितृपक्ष में यहाँ मेला लगता है) का अर्थ अलग है, पर इससे 'फल्गु' के साहित्यिक निहितार्थ की क्षति नहीं होती। कान्तिलाल व्यास ने 'वसन्त विलास' की परिचयात्मक भूमिका में माना था - "The Phagu is so called because it mainly deals with the joys and pleasures of spring time which is at its best in the month of Phalguna."' यह तो वसन्त के साथ निश्चित और अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है, यह अपभ्रंश के अधिसंख्य 'फागु' ग्रन्थों को सामने रखकर निश्चित किया जा सकता है; परन्तु मेरा अभीष्ट यह नहीं है। जैन फागु ग्रन्थों पर फागु-विरहित होने का और धार्मिक संकीर्णता का आरोप लगाया जाता है। प्रतिबद्ध दृष्टि से देखने पर यह आरोप अनुचित मालूम नहीं पड़ता किन्तु
SR No.521859
Book TitleApbhramsa Bharti 2001 13 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2001
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size8 MB
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