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________________ 82 वरवत्थु रयणधारण णिहाणु घत्ता - अपभ्रंश भारती 13-14 णिवस असेस - णयरहँ पहाणु फलिह - सिलायल - पविरइय- सालु गोउरुतोरण- पडिखलिय-तारु ससि - सूरु - कंति-मणि - गण - पहालु णील- मणि-किरण-संजणिय-मेहु सुर-हर-सिहरुच्चाइय-पयंगु णिच्चुच्छव- हरिसिय-सुयण - वग्गु परिपालिय- जंगम - जीवरासि परदव्व-हरण-संकुइय - हत्थु परणारि - णिरिक्खण-कयणिवित्ति परिहरिय-माण - मय- माय गव्वु सीलाहरणालंकरिय- भव्वु तहिँ भुंजइ रज्जु, चिंतिय कज्जु वइरि- हरिण - गण - वाहु । णामेण पसिद्धु लच्छि-समिद्ध विस्सभूइ णरणाहु ||41 ॥ वड्डमाणचरिउ 3.2 I वर- वत्थु - रयण-धारण- णिहाणु । सिंगग्ग - णिहय-णहयलु विसालु । आवण संदरिसिय-कणय तारु । मरु-धुय-धयवड-चल-वाहु-डालु । रयणमय- णिलय-जिय-तियसगेहु । रायहर-दारि गज्जय - मयंगु । तूरारव - वहिरिय-पवणमग्गु । तिरण - परिसुद्धिप्र सुद्ध - भासि । मुणिदाण-जिणुद्धव-विहि- समत्थु । मुणि- भणिय - संख-विरइय- पवित्ति । वंदियण - विंद- पविइण्ण- दव्वु । णिरुवद्दउ जहि जणु वसइ सव्वु । - वह राजगढ नगर समस्त नगरों में प्रधान तथा उत्तमोत्तम वस्तुरूपी रत्नों के धारण (संग्रह) करनेवाला निधान है। जहाँ स्फटिक शिलाओं द्वारा बनाया गया विशाला परकोटा है, जिसके शिखराग्रों से आकाश रगड़ खाता रहता है। गोपुर के तोरणों से जिस (परकोट) की ऊँचाई प्रतिस्खलित है, जहाँ के बाजारों में सोने के सुन्दर-सुन्दर आभूषण ही दिखाई देते हैं, जो चन्द्रकान्त एवं सूर्यकान्त मणियों की प्रभा से दीप्त है, जो वायु द्वारा फहराती हुई ध्वजा-पताका रूपी चंचल बाहुलताओं से युक्त है, जहाँ मेघ ऐसे प्रतीत होते हैं, मानो नीलकान्त मणियों से बने हुए हों। जहाँ के रत्नमय निलयों ने स्वर्गविमानों को भी जीत लिया था, जहाँ देवगृह के समान प्रतीत होनेवाले भवनों के शिखरों से सूर्य को भी ऊँचा उठा दिया गया है। राजगृह के (राजभवन) के द्वार पर सिंह गरजता रहता है। नित्य होनेवाले उत्सवों से सज्जन वर्ग हर्षित रहता है, जहाँ तूर के शब्दों से आकाश बहरा हो जाता है। जहाँ जंगम जीवराशि भी परिपालित रहती है (वहाँ त्रसजीवराशि की परिपालना का तो कहना ही क्या) जहाँ त्रिकरणों अर्थात् मन्, वचन एवं काय की शुद्धि कही जाती है, जहाँ परद्रव्य-हरण में लोगों के हाथ संकुचित तथा मुनि के लिए दान एवं जिनोत्सव की विधियों से दान देने में समर्थ हैं। जहाँ के लोगों की वृत्ति परनारी के निरीक्षण करने में निवृत्ति रूप तथा मुनि-कथित शिक्षा के पालन करने में प्रवृत्तिरूप है। क्रोध, मद, माया एवं गर्व से दूर रहते हैं । बन्दीजनों को द्रव्य दिया करते हैं। भव्यजन शीलरूपी आभरणों से अलंकृत हैं तथा जहाँ सभी जन बिना किसी उपद्रव के निवास करते हैं - घत्ता - उस राजगृही में कर्तव्य कार्यों की चिन्ता करनेवाला, बैरियों को हराने में समर्थ बाहुओं वाला एवं लक्ष्मी से समृद्ध 'विश्वभूति' इन नाम से प्रसिद्ध एक नरनाथ राज्यभोग करता था । - डॉ. राजाराम जैन अनु. -
SR No.521859
Book TitleApbhramsa Bharti 2001 13 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2001
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size8 MB
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