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________________ अपभ्रंश भारती 13-14 73 मणमार विणासहो, सिवपुरिवासहो, पावतिमिरहर दिणयर हो । परमप्पयलीणहो विलयविहीणहो, सरमि चरणु सिरिजिणवरहो ॥11॥ - मेरे आराध्य अनुपम मोक्ष सुख के प्रदाता हैं। देवों, नागों तथा मनुष्यों द्वारा सेवित हे देव ! आप की सदा विजय की भावना है। आपने ज्ञानरूपी महोदधि का पार पा लिया है और भव्य जीवों को मोक्ष मार्ग पर उन्मुख करके महान् उपकार किया है। हे परम पूजनीय ! आप कर्मरूपी भुजंग का दमन करने के लिए मंत्ररूप हैं । चतुर्गतियों में परिभ्रमण करते हुए प्राणियों के उद्धारार्थ आप वास्तव में उत्तम शरण हैं तथा कलहरहित सज्जनों के दुःख- संघात के हरणकर्त्ता हैं - जय अणुवमसिव - सुहकरण देव, देविंदफणिंदणरिंद सेव । जय णाणमहोवहिकलियपार, पाराविय सिवपहे भवियसार ॥ मंताण बीज मणगहकयंत । जय कम्मभुवंगमदमणमंत, जय चउगइडरियजणेक्कसरण, रणरहियसुयणदुहणिवहहरण ।।1.1.3-6॥ - हे देवों के देव महादेव ! आप संयमरूपी सरोवर के राजहंस हैं तथा हंसों के समान उज्ज्वल बुद्धिमानों द्वारा प्रशंसित हैं। आप क्रोधरूपी अग्नि को शमन और शान्त करने के लिए जलरूप हैं । अज्ञानतम का निवारण करनेवाले परमवंद्य आप केवलज्ञान के धारक हैं। आपने मोक्षरूपी शाश्वत लक्ष्मी के हृदय में अपना निवास बनाया है । शताधिक इन्द्रों द्वारा सेवित हैं और सुख के धाम हैं । भव्य कमलों को प्रफुल्लित करने के लिए सूर्य स्वरूपी हैं । आप साक्षात् आत्म-रस के अगाध अर्णव ही हैं - जय संजमसरवररायहंस, हंसोवमबुहयणकयपसंस । जय कोहहुआसणपउरवारि, वारियतम केवलणाणधारि ॥ जय सासयसंपयहिययवास, वासवसयसेविय सुहणिवास । जय भवियसरोरुहकमलबंधु, बंधुरगुण णियरसबहुलसिंधु ।।1.1.7-9 ।। - हे निरंजन ! भव भय भंजन, भुवन महागृहमण्डन देव ! आपकी जय हो ! जो कोई आप के चरणों को नमस्कार करता है तथा मन में आपको स्मरण करता है उस मनुष्य को मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है - जय देव णिरंजण भवभय भंजण, मंडण भुवण महाघरहो । तव चरण णमंतहो मणे सुमंरतहो, होइ समिच्छिउ फलु णर हो ।।1.1.11 ।। 'करकंडचरिउ' काव्य के मंगलाचरण में कवि ने अपने आराध्य जिनेन्द्रदेव में निहित उत्तमोत्तम आत्मिक गुणों का चिन्तन और चिन्तवन किया है तथा अपभ्रंश की 'मंगलाचरण' नामक काव्यरूढ़ि में अपूर्व उपमानों और भक्त्यात्मक शब्दावलि का प्रयोग और उपयोग किया
SR No.521859
Book TitleApbhramsa Bharti 2001 13 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2001
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size8 MB
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