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________________ 67 अपभ्रंश भारती 13-14 प्रसन्नता से सात पग आगे बढ़ा ही; भेरी का नाद सुनकर महिलाएँ किस उत्साह से चल पड़ी उनकी भाव-दशा का यह सौन्दर्य, अर्ध-रात्रि में श्रीकृष्ण की बाँसुरी सुनकर दौड़ पड़नेवाली गोपांगनाओं से तुलनीय है। भाव-शबलता का यह सौन्दर्य विलक्षण है। एक- साथ अनेक अनुकूल भावों के उद्रेक से खोई-खोई मन:दशा का यह चित्र अत्यन्त सटीक और मोहक है क वि माणिण चल्लिय ललियदेह । मुणिचरणसरोयहँ बद्धणेह ।। क वि णेउरसवें रणझणंति। संचल्लिय मुणिगुण णं थुगंति॥ क वि रमणु ण जंतउ परिगणेइ। मुणिदंसणु हियवएँ सइँ मुणेइ॥ क वि अक्खयधूव भरेवि थालु। अइरहसइँ चल्लिय लेवि बालु॥ क वि परिमलु बहलु वहति जाइ। विज्जाहरि णं महियलि विहाय ॥9.2.3-7।। अर्थात् कोई ललितदेह मानिनी मुनि के चरण-कमलों में स्नेह बाँधकर चल पड़ी। कोई नुपूर के शब्दों से झुनि-झुनि ध्वनि करती हुई चली, मानो मुनि के गुणों का स्तवन कर रही हो। कोई अपने साथ चलते हुए रमण की ओर ध्यान न देकर स्वयं हृदय से मुनि के दर्शन की अभिलाषा कर रही थी। कोई अक्षत व धूप से थाल भरकर, बालकों को ले बड़े वेग से चल पड़ी। कोई खूब सुगन्ध उड़ाती हुई जा रही थी, मानो विद्याधरी महीतल पर शोभित हो रही हो। कोई पूर्णचन्द्रमुखी हाथ में कमल लेकर चल पड़ी। इस प्रकार एक भव्य सामूहिक दृश्य का बिम्ब चाक्षुष प्रत्यक्ष हो गया है। इसी प्रकार तीसरी संधि में करकंड को देखने के लिए महिलाओं की मानसिक दशा तथा कायिक अनुभावों का बड़ा मनोहारी चित्रण किया है- 'कोई रमणी उत्कण्ठित होकर वेग से चल पड़ी, कोई विह्वल होकर द्वार पर ही खड़ी रह गई। कोई नए राजा के स्नेह से लुब्ध होकर दौड़ पड़ी। उस मुग्धा को अपने गलित हए परिधान की भी सुध न रही। कोई अपने अधर पर खूब काजल देने लगी और नेत्रों में लाक्षारस करने लगी। कोई निर्ग्रन्थ वृत्ति का अनुसरण करने लगी, तो कोई अपने बालक को विपरीत कटि पर ले रही थी। कोई बाला नुपूर को करतल में पहन रही थी और माला को सिर छोड़कर कटितल पर धारण कर रही थी। कोई अनुराग में इतनी डूब गई कि मार्जार (बिल्ली) को अपना पुत्र समझकर उसे छोड़ती ही नहीं थी। कोई विह्वल हुई भूमि पर चलती-चलती मूर्छित हो रही थी' - क वि रहसइँ तरलिय चलिय णारि। विहडफ्फड संठिय का वि वारि॥ क वि धावइ णवणिवणेहलुद्ध। परिहाणु ण गलियउ गणइ मुद्ध ॥ क वि कज्जलु बहलउ अहरे देइ। णयणुल्लएँ लक्खारसु करेइ ॥ णिग्गंथवित्ति क वि अणुसरेइ। विवरीउ डिंभु क वि कडिहिँ लेइ॥ क वि णेउरु करयलि करइ बाल। सिरु छंडिवि कडियले धरइ माल॥ णियणंदणु मण्णिवि क वि वराय। मज्जारु ण मेल्लइ साणुराय॥ क वि धावइ णवणिउ मणे धरंति । विहलंघल मोहइ धर सरंति ॥3.2.2-8 ।।
SR No.521859
Book TitleApbhramsa Bharti 2001 13 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2001
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size8 MB
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