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________________ 63 अपभ्रंश भारती 13-14 मुनि कनकामर का करकंडचरिउ अपने सौन्दर्य-विधान में अनूठा है। इसकी कथा की बनावट और बुनावट लोक-भूमि पर अनेक धार्मिक एवं लौकिक कथा-रूढ़ियों के सहारे होती है जिससे उसमें लोक-जीवन की मधुरता और सौन्दर्य का भाव प्रखर होता चला है। प्रबन्ध के प्रारम्भ में ही कवि अपनी लघुता का विनम्रतापूर्वक परिचय कराता है - वायरणु ण जाणमि जइ वि छंदु। सुअजलहि तरेव्वइँ जइ वि मंदु॥ जइ कह व ण परसइ ललियवाणि। जइ बुहयणलोयहो तणिय काणि॥ जइ कवियणेसेव हु मइँ ण कीय। जइ जडयणसंगइँ मलिण कीय॥' - मैं न व्याकरण जानता हूँ और न छन्दशास्त्र; एवं शास्त्ररूपी समुद्र के पार पहुँचने में मन्द हूँ। मेरी वाणी में लालित्य का प्रसार किसी प्रकार भी होता नहीं और बुद्धिमान लोगों के सम्मुख मुझे लज्जा उत्पन्न होती है। मैंने कभी कविजनों की सेवा भी नहीं की प्रत्युत जड़ लोगों की संगति से मरी कीर्ति मलिन हुई है। यह विनय-भाव अपभ्रंश के सभी जैन कवियों में दर्शनीय है तथा हिन्दी के परवर्ती कवि भी इस ओर आकृष्ट हुए हैं। चम्पानगरी का वर्णन करता हुआ वह कहता है - उत्तुंगधवलक उसीसएहिं । णं सग्गु छिवइ बाहूसएहिं ।। कोसेयपडायउ घरि लुलंति। णं सेयसप्प णहि सलवलंति॥ जा पंचवण्णमणिकिरणदित्त। कुसुमंजलि णं मयणेण पित्त ।1.4॥ - वह अपने ऊँचे प्रासाद-शिखरों से ऐसी प्रतीत होती है मानो अपनी सैकड़ों बाहुओं द्वारा स्वर्ग को छू रही हो। घर-घर रेशम की पताकाएँ उड़ रही हैं, मानो आकाश में श्वेत सर्प सलबला रहे हों। वह पचरंगे मणियों की किरणों से देदीप्यमान हो रही है, मानो मदन ने अपनी कुसुमांजलि चढ़ाई हो। . यहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार के माध्यम से चाक्षुष-बिम्ब साकार हो गया है। इसी प्रकार धाड़ीवाहन-नरेश कुसुमपुर में माली की कन्या को देखकर मुग्ध होता है तो बरबस उसके मुख से निकल पड़ता है कि मानो कामरूपी वृक्ष की एक फली हुई डाल ही हो- ‘णं कामविडविपरिफलियडाल'। इसमें मानो सर्वांग सौन्दर्य की परिकल्पना साकार हो गई है। यह सौन्दर्य के सूक्ष्म पर्यवेक्षण और चित्रण की ही कलात्मकता है। रानी के नख-शिख-सौन्दर्य में तो कवि ने अपनी मौलिकता का सहज परिचय दिया है। कहीं विशेषोक्ति के सहारे चार चाँद लगाये हैं तो कहीं हेतूत्प्रेक्षा के द्वारा बिम्ब को सटीक बना दिया है। यद्यपि उपमान पुरातन ही हैं, परन्तु उनका प्रयोग एकदम नुतन। इसी से रूपआकलन में एक आकर्षण आ गया है - 'नखों के रूप में मानो सूर्य-चन्द्र इसका अनुसरण करते हैं। कदली इसकी जंघाओं का अनुसरण करने लगी है। सुरगिरि ने अपने से भी कठिन मानकर इस ललित-देह रमणी के नितम्बों का अनुसरण किया है। उसके पीन और उन्नत स्तन
SR No.521859
Book TitleApbhramsa Bharti 2001 13 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2001
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size8 MB
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