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अपभ्रंश भारती 13-14 लोक-जीवन में विस्तार पाकर अन्त में जैन-मुनि के दीक्षा-संस्कार में परिणत हो जाती है।
और कवि को सौन्दर्य-विधान का पूरा-पूरा अवसर मिल जाता है, जिससे उसमें रसात्मकता का उद्रेक होता है।
यह सौन्दर्य दो प्रकार का होता है - वस्तुनिष्ठ (objective) या विषयगत और आत्मनिष्ठ (subjective) या विषयिगत । पश्चिम के एस. एलेक्जेण्डर ने इसे पूर्णतः वस्तुनिष्ठ कहा है। जबकि भारतीय मनीषा इसे आत्मनिष्ठ अधिक स्वीकार करती है। मूलतः सौन्दर्य परिवेश और परिस्थिति-सापेक्ष है- "समै समै सुन्दर सबै रूप कुरूप न कोय"। कभी यह द्रष्टा की दृष्टि में होता है और वह कुरूपतम वस्तु को भी सुन्दरतम रूप प्रदान करता है और कभी वस्तु में ही इतना सौन्दर्य होता है कि द्रष्टा को भी अभिभूत मूल्यांकन हेतु विवश कर देती है। वस्तुनिष्ठ-सौन्दर्य प्रत्यक्ष-बोध से होता है और प्रत्यक्ष के लिए अन्तःकरण और इन्द्रिय दोनों का वस्तु के साथ सन्निकर्ष या संयोग होना चाहिए। क्योंकि सौन्दर्य-बोध का सम्बन्ध अंशतः ऐन्द्रिय-प्रत्यक्ष से अवश्य है और सौन्दर्य-ग्रहण में अन्त:करण का योग अपेक्षित है। आत्मनिष्ठ सौन्दर्य को भावात्मक सौन्दर्य भी कह सकते हैं। यह हमारे भावात्मक संवेग (positive emotion) पर निर्भर करता है। इसमें उद्दीपन के प्रति स्वीकृति का भाव होता है अर्थात् आकर्षण रहता है। किन्तु, यह सभी में समान हो, आवश्यक नहीं। किसी में अभावात्मक-संवेग भी जाग सकता है, जिसमें उद्दीपन के प्रति अस्वीकृति का भाव अर्थात् विकर्षण रहता है। इसलिए वस्तु के प्रत्यक्षीकरण पर जिस सौन्दर्य की अनुभूति होती है उससे जो आनन्द की प्राप्ति होती है वह प्रथम प्रकार का आनन्द है तथा वस्तु के समक्ष न रहने पर समाप्त हो सकता है। किन्तु, दूसरे प्रकार का आनन्द भी होता है जिसकी अनुभूति कल्पना के माध्यम से उस वस्तु के समक्ष न होने पर होती है। यह प्रथम की अपेक्षा स्थायी होता है और कभी दुःख का कारण नहीं होता। कारण, यहाँ वस्तु का प्रत्यक्षीकरण ही नहीं होता। यही काल्पनिक या भावात्मक आनन्द है।
__कल्पना कवि की सृजन-शक्ति है। कल्पना के विनियोग से नवान्वेषण का अवतरण होता है। कल्पना में अदृश्य को दृश्य बनाने की अद्भुत सामर्थ्य होती है। भावना के क्षेत्र में जो कल्पना है, चिन्तन के धरातल पर वही मौलिकता है। तभी तो कल्पनाशील व्यक्ति में मौलिक चिन्तन भी होता है। जिस युग में कल्पना और बुद्धि का समन्वय रहता है उसी में महान् कलाकार पैदा करने की क्षमता रहती है। ‘कल्पना वह जादूभरी शक्ति है जो विरोधी अतिवादों (extremism) के बीच सन्तुलन उपस्थित करती है और प्राचीन तथा परिचित वस्तुओं में भी असाधारण भाव-बोध के कारण नवीनता का आधान करती है।'' रचनात्मक कल्पना सौन्दर्य-शास्त्र की मूलभूत है। इसी को संस्कृत आचार्यों ने 'नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा' कहा है। इस दृष्टि से अपभ्रंश के जैन-मुनियों द्वारा रचित ये चरिउ-काव्य काव्यात्मक-सौन्दर्य में प्रभूत समृद्ध एवं उर्वर कल्पना-सृष्टि के परिचायक हैं।