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अपभ्रंश भारती 13-14
अ-पवाण वाण राहवहो तो वि। जज्जरिय लङ्क रयणायरो वि। छाइज्जइ गयणु चडन्तएहिँ। अखलिय-सर-महि णिवडन्तएहिं । वाएवउ चत्तु पहजणेण । रहु खजिउ अदितिहुं णन्दणेण । दिस करिहुँ असेसेहुँ गलिउ गाउ। हल्लोहलिहूअउ जगु जे साउ। भिज्जन्ति वलइँ जलें जलयरा वि।
णहें णदृ देव थले थलयरवि ॥ 75.12.2-7 ॥ - रामचन्द्र दोनों हाथों से उस पर प्रहार कर रहे थे, जबकि रावण अपने बीसों हाथों से। तब भी राघव के तीर गिने नहीं जा सकते थे। उनसे लंका नगरी और समुद्र जर्जर हो गया था। ऊपर चढ़ते और धरती पर गिरते हुए अस्खलित तीरों ने आसमान ढक लिया। हवा का बहना बन्द था। दशरथनन्दन राम ने सूर्य की गति रोक दी। दिग्गजों के शरीर गलने लगे। समूचे विश्व में खलबली मच गयी। सेनाएँ नष्ट होने लगीं। जल के जलचर प्राणी, आकाश के देवता और धरती के थलचर प्राणी नष्ट होने लगे।
निरन्तर सात दिनों तक लड़ते हुए भी जब युद्ध का अन्त नहीं होता तब लक्ष्मण आक्रमण का दायित्त्व स्वयं लेते हैं।
‘पउमचरिउ' में भक्ति के सोपान हैं- मुनि-समागम, अपरिग्रह, दया-दान-अहिंसासत्यभाषणशील, व्रत-ग्रहण, तपश्चरण, समाधि, ध्यान-ज्ञानप्राप्ति, अनन्तर मोक्ष। सोलह वर्ष का वनवास स्वेच्छा से स्वीकार कर राम-लक्ष्मण-सीता सहित खाई पारकर सिद्धकूट जिनभवन में पहुँचते हैं और स्वयं जिनवर को प्रणामकर स्तुति करते हैं। पच्चीसवीं सन्धि में रथपुर पहुँचे राम बीस तीर्थंकरों की नामक्रम से वन्दना करते हैं -
जय रिसह दुसह-परिसह-सहण । जय अजिय अजिय-वम्मह-महण । जय सम्भव सम्भव-णिद्दलण । जय अहिणन्दण णन्दिय-चलण। जय सुमइ-भडारा सुमइ-कर। पउमप्पह पउमप्पह-पवर । जय सामि सुपास सु-पास-हण ।