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________________ 17 अपभ्रंश भारती 13-14 कहते हैं- 'राम निष्ठुर, निराश, मायारत, अनर्थकारी और दुष्ट बुद्धि हैं। पता नहीं सीतादेवी को इस प्रकार होमकर वह कौन सी गति पायेंगे!' अग्नि का वह कुण्ड भी सीता की पवित्रता के कारण मनोहर सरोवर में परिवर्तित हो गया। उस सरोवर के मध्य से ही एक सिंहासन निकला जिस पर सीता विराजमान थीं। इस अनन्तर राम सीता से क्षमायाचना करते हैं तथा उनसे वापस अपने नगर चलने हेतु कहते हैं23 परन्तु सीता, जो अब स्नेह का परित्याग कर चुकी हैं, कहती हैं- 'हे राम, आप व्यर्थ विषाद न करें, इसमें न तो आपका दोष है, और न जनसमूह का, सैकड़ों जन्मों से धर्म का नाश करनेवाले खोटे कर्मों का यह सब दोष है। जो पुराना कर्म जीव के साथ लगा आया है उसे कौन नष्ट कर सकता है ? हे राम, अबकी बार ऐसा कीजिए जिससे दुबारा नारी न बनूँ। मैं विषय-सुखों से अब ऊब चुकी हूँ। अब मैं जन्म, जरा और मरण का विनाश करूँगी। संसार से विरक्त होकर, अब अटल तपश्चरण अंगीकार करूंगी।' इस प्रकार कहकर, सीतादेवी ने अपने दायें हाथ से सिर के केश को उखाड़कर श्री राघवचन्द्र के सम्मुख डाल दिये। सीता का यह रूप देखकर राम मूछित होकर धरती पर गिर पड़े। वे किसी प्रकार चेतनावस्था में आयें उससे पूर्व ही सीता ने मुनि सर्वभूषण से दीक्षा ग्रहण कर ली। पउमचरिउ की तिरासीवीं सन्धि आद्योपान्त सीता के अग्नि-परीक्षा तथा दीक्षा-ग्रहण प्रसंग से सम्बन्धित है। पउमचरिउ में यह प्रसंग विस्तारपूर्वक वर्णित किया गया है। ___रामचरितमानस में यद्यपि यह प्रसंग अभिव्यंजित अवश्य हुआ है परन्तु पउमचरिउ के प्रसंग से नितान्त भिन्न है। मानस में यह प्रसंग लंकाकाण्ड में संक्षेप में वर्णित किया गया है। जब अंगद, विभीषण तथा हनुमान् राम की आज्ञानुसार सीता को लेकर आते हैं उनके आगमन के साथ ही यह प्रसंग प्रारम्भ होता है। मानस में यह प्रसंग इस प्रकार वर्णित है- सीताजी के असली स्वरूप को, जो पहले अग्नि में प्रवेश करा दिया गया था, उसे अब भीतर के साक्षी भगवान् प्रकट करना चाहते थे। अत: राम ने लीला से कुछ कड़े वचन कहे, जिसे सुनकर सब राक्षसियाँ विषाद करने लगीं। प्रभु के वचनों को आदर देकर मन-वचन-कर्म से सीता बोलीतुम मेरे धर्म के नेगी (धर्मावरण में सहायक) बनो तथा तुरन्त अग्नि तैयार करो। सीता ने लीला से कहा- यदि मन-वचन-कर्म से मेरे हृदय में राम के अतिरिक्त दूसरी गति नहीं है तो अग्निदेव, जो सबके मन की गति जानते हैं, मेरे भी मन की गति जानकर, मेरे लिए चन्दन के समान शीतल हो जायें। सीता ज्यों ही उस अग्निकुण्ड में प्रवेश करती हैं, उनका प्रतिबिम्ब (छायामर्ति) तथा उनका लौकिक कलंक प्रचण्ड अग्नि में जल गये। प्रभ के इन चरित्रों को किसी ने नहीं जाना। देवता, सिद्ध तथा मुनि सब आकाश में खड़े देखते रहे। इसके पश्चात् अग्नि ने शरीर धारण करके वेदों में तथा जगत् में प्रसिद्ध वास्तविक श्री (सीता) का हाथ पकड़कर उन्हें राम को वैसे ही समर्पित किया जैसे क्षीरसागर ने विष्णु को लक्ष्मी समर्पित की थी, सीतां राम के वाम अंग में सुशोभित हुई।
SR No.521859
Book TitleApbhramsa Bharti 2001 13 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2001
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size8 MB
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