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________________ 88 7. संयम श्री की विजय । आखिरी विशेषता को अगर गौण मान लिया जाय तो जैन फागु काव्य की लोकपरकता को और स्वाभाविक दृष्टि से देखा जा सकता है तथा डॉ. पाण्डेय के साथ यह कहा भी जा सकता है - 'काव्य सौष्ठव, रस- योजना तथा मार्मिक अभिव्यञ्जना की दृष्टि से कुछ फागु काव्य बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं ।' 1. 2. 3. 4. नवस्य राज्ञः सुरभेर्व्यावृतस्य जगज्जये । पुष्प वर्षच्छलाद्दण्डं ददतीव वने द्रुमा ।। फागु काव्य-स्वरूप, विवेचन एवं मूल्यांकन, गोविन्द रजनीश, पृष्ठ 13 वही, पृष्ठ 63 जैन संस्कृत काव्यों में भी वसन्त को राजत्व निःसंकोच दिया गया है तथा यह बतलाया गया है कि ऋतु की मादक प्रकृति प्रिय संगम की अभिलाषा उत्पन्न कर देती है - - अपभ्रंश भारती 13-14 3 / श्रेणिक चरित, 3.95 पिकाकूजितमाकर्ण्य त्वक्तमानाग्रहा मधौ । मृगाक्षी श्लाघते पत्ये तिष्ठते शपते द्रुते ॥ श्रेणिक चरित, 8.92 अपभ्रंश और अवहट्ट : एक अन्तर्यात्रा, डॉ. शम्भूनाथ पाण्डेय, पृष्ठ 324 - हिन्दी भवन विश्वभारती, शान्तिनिकेतन 731 235 पश्चिम बंगाल -
SR No.521859
Book TitleApbhramsa Bharti 2001 13 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2001
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size8 MB
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