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________________ 64 अपभ्रंश भारती - 11-12 'विजय नगर (राजस्थान) में एक विरहिणी है जिसका पति प्रवास में खम्भात गया हुआ है। बहुत दिनों के अनन्तर भी वह लौटा नहीं है। इसलिए वह एक पथिक से, जो मूल-स्थान (मुलतान) से अपने स्वामी का गोपनीय लेख लेकर खम्भात जा रहा है, अपना प्रेम-संदेश भेजना चाहती है। पथिक ज्यों ही उसका संदेश लेकर चलने को प्रस्तुत होता है वह कुछ और कहने लगती है। ऐसा कई बार होता है। यहाँ तक कि जब पथिक चलने को उद्यत होता है और उससे पूछता है कि और कुछ तो नहीं कहना है, तो वह रो पड़ती है। पथिक उसको सांत्वना देता है और संयोगवश पूछ बैठता है कि उसका पति किस ऋतु में प्रवास के लिए गया था? वह कहती है कि ग्रीष्म में और इसके अनन्तर वह छहों ऋतुओं एवं बारहों महीनों के अपने विरह-जनित कष्ट का वर्णन करती है। इसके अनन्तर पथिक उससे विदा लेकर जैसे ही प्रस्थान के लिए प्रस्तुत होता है और नायिका भी पथिक को मंगल-यात्रा हेतु विदा करके ज्यों ही दक्षिण दिशा की ओर मुड़ती है, तो उसे प्रवास से लौटता हुआ पति दिखायी पड़ता है और नायक-नायिका का पुनः मिलन होता है। यहीं काव्य की सुखमय समाप्ति होती है।' इस प्रकार इसमें प्रोषित पतिका का विरह-निवेदन और अन्त में उसका संयोग वर्णित है। अतः इसे संयोगांत विरह-काव्य कहा जा सकता है । यह नायिका-प्रधान रचना है क्योंकि इसमें उसी के मनोभावों की अभिव्यक्ति है। इसका अंतिम अंश बड़ा मार्मिक है। नायिका कहती है - जइ अणक्खरु कहिउ मइ पहिय। घण दक्खा उन्नियह मयण अग्गि विरहिणि पलित्तिहि. तं फरसउ मिल्हि तुहु विणियमग्गिपभणिज्जमत्तिहि। अर्थात् हे पथिक, यदि विरह-पीड़िता, कामाकुला मैंने कुछ अकथ्य कहा हो तो उसे सुधार कर कहना। अंत में नायक के आगमन की सूचनामात्र है और कवि ने नायक-नायिका के सुखमिलन का वर्णन न कर यहीं कथा समाप्त कर दी है। संदेश-रासक की कहानी बहुत सरल, किन्तु मर्मस्पर्शी है । यह महत्वपूर्ण विरह-काव्य है। विरह-पक्ष को साकार करने के लिए हृदय की मर्मवेदना के द्वारा वातावरण तैयार किया गया है। इसमें विप्रलम्भ शृंगार की प्रधानता है। इसके दूसरे प्रक्रम में नायिका और तीसरे में प्रकृति का वर्णन है, किन्तु दोनों का वर्णन इस तरह प्रस्तुत किया गया है कि विरहिणी नायिका को हम क्षणभर भी नहीं भुला सकते। कवि की काव्य-कुशलता का वर्णन करते हुए आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी कहते हैं कि कवि प्राकृतिक दृश्यों का चित्र इस कुशलता से अंकित करता है कि इससे विरहिणी के विरहाकुल हृदय की मर्मवेदना मुखरित हो उठती है। वर्णन चाहे जिस दृश्य का हो व्यंजना हृदय की कोमलता और मर्म-वेदना की ही होती है। ___ इस रचना का षड्ऋतु-वर्णन रीतिकालीन ऋतुवर्णन के समान है। इसमें नख-शिख वर्णन भी मिलता है, जो विशुद्ध प्रेम-शृंगार की भावना से ओतप्रोत है । प्रकृति के समस्त पदार्थ विरहिणी के हृदय में वियोग-व्यथा को द्विगुणित करते हैं । कवि का प्रत्येक वर्णन विप्रलम्भ-शृंगार रस
SR No.521858
Book TitleApbhramsa Bharti 1999 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1999
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size9 MB
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