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________________ अपभ्रंश भारती जा पंचवण्णमणिकिरणदित्त, कुसुमंजलि णं मयणेण घित्त । चित्तलियहिं जा सोहइ घरेहिं णं अमरविमाणहिं मणहरेहिं । णवकुंकुमछडयहिं जा सहेइ, समरंगणु मयणहो णं कहेइ । रत्तुप्पलाइँ भूमिहिं गयाइँ, णं कहइ धरती फलसयाइँ । जिणवासपुज्जमाहप्पएण, ण वि कामुय जित्ता कामएण | (1.4.1) अर्थात् वह चम्पा नगरी जल से भरी खाई से घिरी होने के कारण सागर से वेष्टित पृथ्वी समान सुशोभित हो रही है। वह अपने ऊँचे प्रासाद-शिखरों से ऐसी प्रतीत होती है मानो अपनी सैकड़ों भुजाओं द्वारा स्वर्ग को छू रही हो । वहाँ विशाल जिनमन्दिर ऐसे लगते हैं मानो निर्मल अभंग पुण्य के पुंज हों। घर-घर रेशम की पताकाएँ उड़ रही हैं, मानो आकाश में श्वेत सर्प लहरा रहे हों। वे पचरंगी मणियों की किरणों से ऐसी देदीप्यमान हो रही हैं, मानो मदन ने अपनी कुसुमांजलि चढ़ाई हो । वे चित्रमय घरों से ऐसे सुशोभित हैं मानो देवताओं के मनहर विमान हों । नई केशर की छटा ऐसी लग रही है मानो कह रही हो कि मदन का समरांगण यही तो है । वहाँ स्थान-स्थान पर रक्त - कमल खिले हुए ऐसे सुशोभित हो रहे हैं मानो धरती कह रही हो कि मैं ही सब प्रकार के फलों को धारण करती हूँ। वहाँ भगवान् वासुपूज्य के माहात्म्य से पुरुष कामी होकर भी कामदेव द्वारा जीते नहीं जाते। यहाँ भी उत्प्रेक्षाओं की विभूति सचमुच बड़ी दिव्य है । कवि जैसे इनकी परिकल्पना में प्रतिपाद्य के अनुरूप सामान्य लोक- भूमि से ऊपर उठ जाता है। यही उसके सौन्दर्य-बोध और निरूपण का सामंजस्य है। सौन्दर्यानुभूति की यह दिव्यता यहाँ अनूठी है । 1 11-12 53 इसी प्रकार पुष्पदंत ने 'जसहरचरिउ' में यौधेय देश का वर्णन किया है। यहाँ भी कहीं मानवजीवन की उपेक्षा नहीं की गई है। उसकी दृष्टि में प्रासादों का आनन्दमय जीवन ही नहीं है, बल्कि ग्रामीणों के सहज, स्वाभाविक, सरल, मधुर जीवन को भी उसने चित्रित किया है। गायभैंस, ग्वाल-बालों के गीतों की मधुरता, ईख के खेत, तोतों की पंक्तियाँ आदि दृश्य इसी तथ्य की ओर संकेत करते हैं, यथा - जोयउ णामि अत्थि देसु, णं धरणिए धरियउ दिव्ववेसु । जहिं चलई जलाई सविब्भमाई, णं कामिणि कुलई सविब्भमाई | कुसुमिय फलियां जहिं उववणाई, णं महि कामिणिणव जोव्वणाई । मंथर रोमंथण चलिय गंड, जहिं सुहि णिसण्ण गोमहिसि संड । जहिं उच्छुवाई रस दंसिराई, णं पवण वसेण पणच्चिराई । हिं कणभर पणविय पिक्क सालि, जहिं दीस सयदलु सदलु सालि । जहिं कणिसु कीर रिंछोलि चुणइ, गह वइ सुयाहि पडिवयणु भणइ । जहिं दिण्णु कण्णु वणि मयउलेण, गोवाल गेय रंजिय मणेण । रानी पद्मावती की गर्भावस्था का चित्रण करते हुए कवि कनकामर ने लोकानुभूति को जैसे साकार कर दिया है - उसके शरीर में अपूर्व छाया उत्पन्न हुई। उसके उज्ज्वल कपोल पीले पड़ गये। उसके उर में अब मोतियों का हार सुशोभित नहीं होता, क्योंकि पयोधरों के तेज ने
SR No.521858
Book TitleApbhramsa Bharti 1999 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1999
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size9 MB
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