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________________ 52 अपभ्रंश भारती - 11-12 के प्रयोग से प्रकृति चैतन्य हो उठी है। इस प्रकार अपभ्रंश के इन कवियों का सौन्दर्य-चित्रण अद्वितीय और कलात्मक ऐश्वर्य से परिपूर्ण है। स्वयंभू का 'पउमचरिउ', पुष्पदंत का 'जसहरचरिउ', श्रीधर का 'भविसयत्तचरिउ', अद्दहमाण का 'संदेश रासक', पुष्पदंत का 'महापुराण', धवलकवि-कृत 'हरिवंशपुराण' आदि इस दृष्टि से उल्लेख्य हैं। किन्तु, मुनि कनकामर के 'करकंडचरिउ" में तो ऐसे स्थलों की भरमार है। उनके सौन्दर्य-बोध और निरूपण में अद्भुत सामंजस्य है। 'करकंडचरिउ' में सौन्दर्य चित्रण को हम दो रूपों में देखते हैं - एक वस्तु-सौन्दर्य और दूसरा भाव-सौन्दर्य । महाकाव्यों और कथा-काव्यों में दोनों के निरूपण की पुरातन परम्परा रही है। वस्तु-सौन्दर्य से उन स्थलों या वस्तुओं के वर्णन का तात्पर्य है जहाँ कथानक या इतिवृत्त की विविध घटनाएँ घटित होती हुई आगे बढ़ती हैं और कथा-नायक के चरित्र को उजागर करती हैं। इनके अन्तर्गत नगर, प्रासाद, पुष्पवाटिका, उपवन, सरोवर, चित्रशाला, कुसुमशय्या, हाट, सेना, युद्ध-वर्णन आदि का चित्रात्मक निरूपण होता है। यथा - प्रथम संधि के तीसरे कड़वक . में अंग देश और चौथे कड़वक में चम्पा नगरी का चित्रण बड़ा भव्य बन पड़ा है - एत्थत्थि खण्णउ अंगदेसु, महिमहिलइँ णं किउ दिव्ववेसु। जहिं सरवरि उग्गय पंकयाइँ णं धरणिवयणि णयणुल्लया। जहिं हालिणिरुवणिवद्धणेह, संचल्लहिं जक्खण दिव्वदेह। जहिं बालहिं रक्खिय सालिखेत्त, मोहेविणु गीयएँ हरिणखंत। जहिं दक्खइँ भुंजिवि दुह मुयंति, थलकमलहिं पंथिय सुह सुयंति। जहिं सारणिसलिलि सरोयपंति, अइरेहइ मेइणि णं हसंति॥ (1.3.5) अर्थात् ऐसे इस भरत क्षेत्र में रमणीक अंग देश है, मानो पृथ्वी-महिला ने दिव्य वेष धारण किया हो। जहाँ के सरोवरों में कमल उग रहे हैं, मानो धरणी के मुख पर सुन्दर नयन ही हों। जहाँ कृषक बालाओं के सौन्दर्य से आकृष्ट होकर दिव्य देहधारी यक्ष भी स्तंभित तथा गतिशून्य हो जाते हैं। जहाँ बालिकाएँ चरते हुए हरिणों के झुण्डों को अपने गीत से मोहित करके धान के खेतों की रक्षा कर लेती हैं। जहाँ पथिक द्राक्षाफलों का भोजन कर अपनी यात्रा के श्रमजन्य दुःख से मुक्त होते और स्थल कमलों पर सुख से सो जाते हैं । जहाँ नहरों के पानी में कमलों की पंक्तियाँ ऐसी शोभायमान हो रही हैं, मानो पृथ्वी हँस रही हो । यहाँ प्रकृति का तो भव्य चित्रण है ही, किन्तु अंग देश से जोड़कर जो उत्प्रेक्षाएँ की गई हैं, वे अनूठी एवं मनोहारी हैं। इससे अंग देश की हरी-भरी, शस्य-स्यामला भूमि का तो परिचय मिलता ही है; वहाँ के जीवन की खुशहाली और प्रफुल्लता का भी संकेत सहज ही मिल जाता है । इसी प्रकार चम्पानगरी का वर्णन अतीव मोहक और कलापूर्ण है - जा वेढिय परिहाजलभरेण, णं मेइणि रेहइ सायरेण। उत्तुंगधवलकउसीसएहिं, णं सग्गु छिवइ बाहूसएहिं। जिणमंदिर रेहहिं जाहिं तुंग, णं पुण्णपुंज णिम्मल अहंग। कोसेयपडायउ घरि लुलंति, णं सेयसप्प णहि सलवलंति।
SR No.521858
Book TitleApbhramsa Bharti 1999 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1999
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size9 MB
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