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________________ अपभ्रंश भारती - 11-12 39 जाने की आवश्यकता नहीं है। पर की शरण की आवश्यकता परतन्त्रता की सूचक है जब कि प्रत्येक वस्तु पूर्णतः स्वतन्त्र है, उसे अन्य/पर की सहायता की आवश्यकता नहीं है। अशरण अहस्तक्षेप का सूचक है। कोई भी व्यक्ति कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो वह अन्य द्रव्य के परिणमन में हस्तक्षेप नहीं कर सकता। इसका प्रयोजन संयोगों और पर्यायों से दृष्टि हटाकर स्वभाव-सन्मुख करना है। एकत्व भावना द्वारा जीव के एक अकेले होने के भाव को योगसारकार ने इस प्रकार हृदयंगम कराया है - इक्क उप्पज्जइँ मरइ कु वि दुहु सुहु भुंजइ इक्कु। णरय] जाइ वि इक्क जिउ तहुँ णिब्बाणहँ इक्कु ।। 69॥ - जीव अकेला ही जन्म लेता है, अकेला ही मरता है और वह अकेला ही सुख-दुःख का उपभोग करता है। वह नरक में भी अकेला ही जाता है और निर्वाण को भी अकेला ही प्राप्त करता है। ' जन्म-मरण, सुख-दुःखादि प्रत्येक स्थिति को जीव अकेला ही भोगता है और प्रत्येक परिस्थिति में वह अकेला ही है। ऐसी एकल भावना के द्वारा जीव को अकेलेपन की अनुभूति करायी है। यह अकेलापन उसका स्वभाव है। इस एकत्व स्वभाव को स्वीकार करना ही इसका प्रयोजन है। एकत्व स्वभावी आत्मा का कुटुम्ब, परिवार, शरीरादि में पृथकता का ज्ञान करना और इन्हें मात्र संयोग मानना तथा पर से भिन्न निज-स्वरूप में स्थिर होना ही इसके चिन्तन का लक्ष्य है। योगसार में आत्मा के एकत्व स्वभाव के साथ शरीर की अशुचिता को भी बतलाया गया है - जेहउ जज्जरु णरय घरु तेहउ बुज्झि सरीरु। अप्पा भावहि णिम्मलउ लहु पावहि भवतीरु ॥51॥ हे जीव ! जैसे नरकवास सैकड़ों छिद्रों से जर्जरित है उसी तरह शरीर को भी (मल-मूत्र आदि से) जर्जरित समझ । निर्मल आत्मा की भावना कर (जिससे) शीघ्र ही संसार से पार होगा। ___यहाँ पर शरीर की अपवित्रता का बोध कराया गया है। शरीर की यथार्थ स्थिति को समझकर उससे आसक्ति हटाना, शरीर के परिणमन में सुखी-दुःखी न होना और आत्म-स्वरूप में स्थिर होना ही इस अशुचि भावना का लक्ष्य है। संसार-शरीर और भोगों की क्षणभंगुरता एवं अशरणता का बोध स्वयं के एकत्व तथा परपदार्थों से भिन्नत्व का ज्ञान. शरीर की अशचितापरक जानकारी एवं अनभति निज से भिन्न पर-पदार्थों से एकत्व व ममत्व को तोड़ने के सफल उपाय हैं । ये अनुकूलता/प्रतिकूलता में अन्य पर आरोप-वृत्ति का/कर्तृत्व बुद्धि का नाशक है । ये समता भाव की जनक हैं । रागादि विकारी भावों की निवृत्ति का कारगर उपाय है । रागादि भावों के पूर्ण क्षय होने पर अयोगी दशा की प्राप्ति होती है। इसके लिए जोइन्दुदेव ने संदेश दिया है वह इस प्रकार है -
SR No.521858
Book TitleApbhramsa Bharti 1999 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1999
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size9 MB
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