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________________ अपभ्रंश भारती - 11-12 यदि भारतीय साहित्यशास्त्र की आधारभूमि बनायें तो भारतीय साहित्यशास्त्र कोश में यह अनाधिकारिक या मुख्य कथा एवं प्रासंगिक कथा है इसे इतिवृत्त भी कहते हैं । 20 ध्वनि सिद्धांत में ध्वनि का एक भेद वस्तुध्वनि है । इसमें अलंकारशून्य वस्तु की ध्वनि होती है । वस्तुध्वनि में किसी तथ्यकथन की अभिव्यंजना होती है । यहाँ पर कथानक और तथ्यकथन को वस्तु कहा गया है। डॉ. नगेंद्र ने 'भारतीय साहित्यकोश' में वस्तु को इस प्रकार वर्णित किया है - " . 'वस्तु भारतीय नाट्यशास्त्र में निरूपित रूपक के तीन तत्त्वों में से प्रथम है। अन्य दो तत्त्व हैं- नेता और रस । वस्तुतः वस्तु नाटक का मेरूदण्ड है ।" वस्तु- -विषयक उपर्युक्त विवेचन अतिशास्त्रीय एवं अतियांत्रिक होने के कारण केवल इतिहास की वस्तु होकर रह गया है। आधुनिक नाटककारों की सर्जनात्मक प्रतिभा युग और विषय के अनुरूप नवीनतम वस्तुतंत्र का आविष्कार करने लगी है। साहित्यशास्त्र में वस्तु संबंधी चर्चा से पूर्ण वस्तु का सीधा संबंध मानव जीवन से ही था । डॉ. गणपतिचंद गुप्त ने वैज्ञानिक तर्क पद्धति का निर्वाह करते हुए वस्तु तत्त्व को स्पष्ट किया है। उन्होंने अनेक अर्थों में से 'उपादान सामग्री' का अर्थ लेना ही उचित समझा है और इसे अंग्रेजी के मैटर का समानार्थक बतलाया है। उन्होंने शब्दकोष के अनुसार मैटर के विभिन्न अर्थ दिये हैं, यथा- (1) वह स्थूल पदार्थ जिसे ज्ञानेंद्रियों के माध्यम से ग्रहण किया जा सके, (2) जिससे किसी वस्तु का निर्माण किया जाता है, (3) जो किसी निश्चित रूप को प्राप्त कर लेने पर किसी पदार्थ विशेष में परिणत हो जाता । पहले अर्थ को साहित्य के लिए अनुपयोगी बताते हुए वे शेष दो अर्थों की ही चर्चा करते हैं। वास्तविकता यह है कि पहले अर्थ में ही शेष सारे अर्थों का आधार हुआ है। यहाँ वस्तु की वास्तविकता स्पष्ट करती है और इन्द्रियबोध के माध्यम से ही मानव वस्तु की वास्तविकता से जुड़ता है। जिससे मानव इन्द्रियबोध के माध्यम से न जुड़ सके वह सैद्धांतिक रूप में उपस्थित होकर भी कला साहित्यादि की चर्चा में वस्तु का पद नहीं प्राप्त कर सकेगी। ‘पउमचरिउ’ तथा ‘रामचरितमानस' के वस्तुविधान को तुलनात्मक अध्ययन के अतिरिक्त भी उसके पूर्व में कई बिन्दु हैं जो कुछ साम्यता तथा कुछ वैषम्यता लिये हुए हैं । अत: यह तुलनात्मक अध्ययन प्रारम्भिक पृष्ठभूमि को दृष्टि में रखकर अंत तक किया गया है। क्रमबद्ध रूप में आद्योपांत यह अध्ययन अनेक बिंदुओं पर आधारित है जिसका क्रमबद्ध विवेचन प्रस्तुत किया जा रहा है - 11 काव्यसृजन हेतु मूल प्रेरणा स्वयंभू " पुणु अप्पणउं पायडमि रामायण कावे (1.1.19) की भावना से प्रेरित होकर 'पउमचरिउ' की रचना हेतु प्रवृत्त होते हैं। इस पंक्ति से यह उद्भासित होता है कि कवि स्वयं को इस रामकथा के माध्यम से प्रकट कर रहे हैं । इस सम्बन्ध में डॉ. साठे का मत द्रष्टव्य है, वस्तुतः कवि की कृति ही उसके व्यक्तित्व की परिचायिका —
SR No.521858
Book TitleApbhramsa Bharti 1999 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1999
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size9 MB
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