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________________ अपभ्रंश भारती - 11-12 उववणाइँ सुरमणकयहरिसइँ जहिँ पंडुच्छुवणइँ कयहरिसइँ कामिणिवयणा' व अइसरसइँ। दलियइँ पीलियाइँ पयमलियइँ धुत्तउलाइँ णाइँ मुहगलिय। जहिँ वेस व कलरवमुह रत्तिय णित्तु सुकरइ धण्ण सुयपंतिय। जहिँ छेत्तइँ णं पहियकलत्तइँ घणसास. मि ण मेरएँ चत्तइँ। उववणाइँ सुरमणकयहरिसइँ भद्दसाल णंदणवणसरिसइँ। कमलकोसे भमरहिँ महु पिज्जइ महुयराहँ अह एउ जि छज्जइ। जहिँ सुसरासण सोहियविग्गह कयसमरालीकेलिपरिग्गह। रायहंस वरकमलुक्कंठिय विलसइँ बहुविहपत्तपरिट्ठिय। घत्ता- तहिँ पट्टणु णाम रायगिहु अस्थि सुरहँ णावइ णिलउ। महि-महिलएँ णियमुहि णिम्मविउ णाइँ कवोलपत्तु तिलउ॥3॥ सुदंसणचरिउ 1.3 इस मगध देश में जैसे पांडु इक्षु वन अति सरस दिखाई देते थे, वैसे ही हर्ष से युक्त कामिनियों के मुख भी। इक्षु दंड उसी प्रकार दले, पीडे व पैरों से मले जाने पर रस प्रदान करते थे, जैसे धूर्तों के कुल दलन, पीडन और मर्दन से दंडित होकर मुख से लार बहाते हैं । जहाँ वेश्या मुख से राग आलापती हुई अनुरागपूर्वक नृत्य करती थी, धन्या (गृहिणी) भी गान करती हुई सुन्दर नृत्य करती थी व मधुरगीत गाती हुई (धान्य को कूट-कूट कर) चावल से तुष अलग करती थी; तथा शुकपंक्ति कलरव करती हुई (खेतों में या आँगन में सूखते हुए) धान को निस्तुष करते थे (धान को फुकल कर चावल खा जाते थे)। जहाँ खेत सघन शस्य से युक्त होते हुए अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करते, जिस प्रकार कि पथिकों की वियोगिनी स्त्रियाँ घनी साँसें लेती हुई भी अपनी कुल-मर्यादा का त्याग नहीं करतीं। वहाँ के उपवन रमण करनेवालों को हर्ष उत्पन्न करते हुए उस भद्रशाल युक्त नन्दनवन का अनुकरण करते थे, जो देवों के मन को आनन्ददायी है। कमलों के कोशों पर बैठकर भ्रमर मधु पीते थे, मधुकरों को यही शोभा देता है। जहाँ सुन्दर सरोवरों में अपने शोभायमान शरीरों सहित हंसिनी से क्रीड़ा करते हुए श्रेष्ठ कमलों के लिए उत्कंठित और नाना प्रकार के पत्रों पर स्थित राजहंस उसी प्रकार विलास कर रहे थे जिस प्रकार कि उत्तम धनुष से सुसज्जित शरीर, समरपंक्ति की क्रीड़ा का संकल्प किये हुए, श्रेष् राज्यश्री के लिए उत्कंठित व नाना भांति के सुभट पात्रों सहित उत्तम राजा शोभायमान होते हैं। ऐसे उस मगध देश में राजगृह नाम का नगर है, जैसे मानो देवों का निलय हो व जो मानो पृथ्वीरूपी महिला ने अपने मुख पर कपोलपत्र व तिलक रूप निर्माण किया हो अनु. - डॉ. हीरालाल जै
SR No.521858
Book TitleApbhramsa Bharti 1999 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1999
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size9 MB
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