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अपभ्रंश भारती 11-12
और सभ्यता, साहित्य, उपासना पद्धति तथा उस समय में प्रचलित आचार - शास्त्र पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। अपभ्रंश कवियों ने तीर्थंकर महावीर की उत्तरकालीन परम्परा का निरन्तर निर्बाध निर्वाह किया है । विविध तीर्थंकरों, केवली भगवंतों तथा पौराणिक तथा राजकीय पुरुषों के जीवन-चरित्र, आचार - शास्त्र तथा व्रत - विधान आदि अनेक लोकप्रिय विषयों पर आधारित अनेक चरिउ - काव्यों की सर्जना हुई है ।
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इतनी सुदीर्घ परम्परा में नित्य और निरन्तर निर्बाध रूप से रचे गये चरिउ - काव्य पर गवेषणात्मक तथा काव्यशास्त्रीय अध्ययन और अनुशीलन की आवश्यकता । इत्यलम् ।
1. अपभ्रंश साहित्य, डॉ. हरिवंश कोछड़, पृष्ठ 129-30 ।
2. हिन्दी का बारहमासा साहित्य, उसका इतिहास तथा अध्ययन, प्रथम अध्याय, डॉ. महेन्द्रसागर प्रचंडिया |
3. जैन हिन्दी कवियों के काव्य का काव्यशास्त्रीय अध्ययन, प्रथम अध्याय, डॉ. महेन्द्रसागर प्रचंडिया ।
4. संक्षिप्त हिन्दी शब्द सागर, नागरी प्रचारिणी सभा, काशी, पृष्ठ 311।
5. हिन्दी काव्य रूपों का अध्ययन, डॉ. रामबाबू शर्मा, पृष्ठ 46
6. पउमचरिउ की भूमिका, लेखक, डॉ. हरिवल्लभ भयाणी, पृष्ठ 151
7. हिन्दी साहित्य कोश, प्रथम भाग, सम्पादक डॉ. धीरेन्द्र वर्मा, पृष्ठ 44-45।
8. हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग, डॉ. नामवर सिंह, पृष्ठ 170 से 1761
9. मुहावरा मीमांसा - डॉ. ओउम प्रकाश गुप्त, पृष्ठ 18-19।
10. अपभ्रंश काव्य में लोकोक्तियाँ और मुहावरे और हिन्दी पर उनका प्रभाव, डॉ. (श्रीमती) अलका प्रचंडिया ।
11. जैन हिन्दी काव्य में छन्दो योजना, डॉ. आदित्य प्रचंडिया, पृष्ठ 10।
12. काव्यालंकार, रामबहोरी शुक्लः वामन, पृष्ठ 111/2।
13. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, खण्ड 4, डॉ. नेमीचन्द्र शास्त्री,
पृष्ठ 94-951
14. वही, पृष्ठ 951
15. पउमचरिउ, सभी भाग, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली ।
16. जैन साहित्य और इतिहास, पं. नाथूराम 'प्रेमी', पृष्ठ 387
17. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, खण्ड 4, डॉ. नेमीचन्द्र शास्त्री, पृष्ठ 112 । 18. जंबूसामिचरिउ, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली ।