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अपभ्रंश भारती - 11-12
"अपभ्रंश साहित्य का सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में बहुत ऐतिहासिक महत्त्व है । यद्यपि जिस व्यापकता और विशालता के साथ इसका आरम्भ हुआ वह अन्त तक न रही; बल्कि परवर्ती साहित्य के विषय और शैली में एक प्रकार की जड़ता दिखाई पड़ती है। फिर भी समग्र रूप में यह साहित्य उस युग के जातीय नवोन्मेश का प्रतिनिधि होकर ऊपर उठा। अपभ्रंश की प्रत्यग्रता का ठीक-ठीक अनुभव परवर्ती संस्कृत साहित्य की ह्रासोन्मुख प्रवृत्तियों के परिपार्श्व में ही हो सकता है। अपभ्रंशकालीन संस्कृत साहित्य, उस नागर समाज की सैंधी हुई विचारधारा को प्रतिबिंबित करता है जो अपना ऐतिहासिक कार्य समाप्त कर चुकने पर सामाजिक विकास में बाधक हो रहा था। इस जड़ता से तत्कालीन संस्कृत साहित्य भी ग्रस्त दिखाई पड़ता है। 13 अतः भाषा की दृष्टि से यद्यपि संस्कृत तब तक उतनी प्रचलन में न रही थी, तथापि जनसामान्य के
सने अपने गौरव एवम् मान को पूर्ववत् बनाये रखा था। लम्बे समय तक संस्कृत भाषा में ग्रन्थों का प्रणयन इस बात का साक्षी है। ब्राह्मणों के अतिरिक्त जैनाचार्यों ने भी अपने मतों एवम् सिद्धान्तों के प्रचार-प्रसार तथा अपने तीर्थंकरों की स्तुति हेतु संस्कृत भाषा को भी माध्यम बनाया। संस्कृत के साथ-साथ उस समय प्राकृत भाषा भी व्यवहार में थी तथा अपभ्रंश ग्रन्थों की भी रचना प्रगति पर थी। बंगाल में 84 सिद्धों ने अपभ्रंश में रचनाएँ लिखकर अपभ्रंश साहित्य को पल्लवित एवम पष्पित किया तथा पालवंशी बौद्धों ने लोकभाषा को प्रोत्साहन दिया। राष्ट्रकूट राजाओं के आश्रय में स्वयंभू एवम् पुष्पदन्त जैसे अपभ्रंश भाषा के क्रान्तिदर्शी कवियों ने प्रसिद्ध ग्रन्थों की रचना करके अपभ्रंश साहित्य की श्रीवद्धि की तथा उसे पर्याप्त समद्ध भी किया। मंज और भोज को प्राकृत भाषा से ही नहीं अपभ्रंश के प्रति भी विशिष्ट अनुराग था। इन सभी कवियों ने संस्कृत कवियों एवम् उनके साहित्य का गहन अध्ययन किया था। साक्ष्य के लिए पुष्पदन्त में बाण की श्लेष शैली को स्पष्ट रूप में देखा जा सकता है। अपभ्रंश के प्रसिद्ध कवि स्वयंभू ने भी संस्कृत के प्राचीन कवियों एवम् साहित्य के प्रति अपना हार्दिक आभार व्यक्त किया है, तथापि इन अपभ्रंश कवियों को तत्कालीन राजवर्ग से वैसा प्रोत्साहन कदापि न मिल सका जैसा संस्कृत कवियों को प्राप्त हआ था। राजा लोगों का अभी तक संस्कृत और प्राकत की ओर ही झुकाव बना हुआ था अथवा यों कहें कि अब भी उन्हें संस्कृत-प्राकृत साहित्य ही अधिक आकृष्ट कर रहा था।
चौदहवीं शताब्दी में भी भानुदत्त जैसे प्रसिद्ध आलंकारिक हुए जिन्होंने 'गीतगौरीपति' नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ की रचना की। तत्पश्चात् 'नलाभ्युदय' कार्तवीर्यविजय जैसे प्रसिद्ध संस्कृत काव्यग्रन्थ सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी तक लिखे जाते रहे । अपभ्रंश साहित्य की रचना-परम्परा भी सत्रहवीं शताब्दी तक चलती रही। उल्लेखनीय है कि चौदहवीं-पन्द्रहवीं शताब्दी में ही साहित्यक रचनाएँ प्रादेशिक भाषा-साहित्य से प्रभावित होने लगी थीं. क्योंकि इस समय तक प्रादेशिक भाषाएँ भी साहित्यिक क्षेत्र में अवतरित हो चुकी थीं तथा साहित्य में अपना प्रभुत्व स्थापित करने का प्रयत्न करने लगी थीं।