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________________ अपभ्रंश भारती - 11-12 सामना किया। अतः भारतीय समाज आकस्मिक परिस्थितियों के वशीभूत होकर समय-समय पर कमजोर-सा अवश्य दिखाई दिया है, पर हर बार उसने अपनी अस्मिता को सुरक्षित रखने का भरपूर प्रयास भी किया है। साहित्यिक आधार - "अपभ्रंश भाषा का साहित्य ईसा की पाँचवीं शताब्दी के पश्चात् आरम्भ होता है। इस समय अपभ्रंश भाषा भारतवर्ष के अधिकांश प्रदेशों में प्रचलित थी। गौरीशंकर ओझा के मतानुसार अपभ्रंश का प्रचार गुजरात, सुराष्ट्र, मारवाड़ (त्रवण) दक्षिण पंजाब, राजपूताना, अवन्ति और मालवा (मन्दसौर) में विशेष रूप से था।"11 गुप्तकाल में कला साहित्य एवम् ज्ञान उन्नति के शिखर पर आरूढ़ थे अर्थात् इस समय कला एवम् साहित्य ने पर्याप्त प्रगति की। ज्योतिष, गणित, दर्शन तथा काव्य साहित्य आदि सभी क्षेत्रों में भारतीयों ने उन्नति करते हुए गुप्त-युग की प्रतिष्ठा में वृद्धि की और उन्नति का यह क्रम अगली एक-दो शताब्दियों तक प्रभाव में रहा। गुप्तकाल में नालन्दा और विक्रमशिला के विहार ज्ञानविज्ञान के प्रसिद्ध एवम् उत्कृष्ट केन्द्र थे। वैदिक एवम् पौराणिक शिक्षा का प्रसिद्ध और प्रमुख केन्द्र कन्नौज था। कालान्तर में ज्ञान-विज्ञान के मार्ग पर सतत प्रवाहित इस ज्ञान-गंगा का प्रवाह मन्द पड़ गया अर्थात् ज्ञान की राह में रुकावटें उत्पन्न होने लगीं। अलंकारों की अधिकता ने पूर्व काव्यगत स्वाभाविकता एवम् ओज की धारा को धुंधला कर दिया तथा भाष्यों एवम् टीकाटिप्पणियों के बोझ से काव्यों में मौलिकता का अभाव-सा दिखाई देने लगा। "छठी से बारहवींतेरहवीं शताब्दी तक अपभ्रंश भाषा ने राजनैतिक और सांस्कृतिक संबल पाकर साहित्य-रचना की प्रमुख भाषा के रूप में जो गौरव प्राप्त किया वह कई क्षेत्रीय भाषाओं के पृथक् विकास का भी कारण बना। समस्त अपभ्रंश क्षेत्र में साहित्य की परिनिष्ठित भाषा के समानान्तर स्थानीय बोलियों का महत्त्व भी बढता जा रहा था। अपभ्रंश ने संस्कृत से विद्रोह करके परिनिष्ठित होने का जो व्याकरणिक मार्ग अपनाया था उससे उसका प्रयोग जनसम्पर्क में अधिक उपयोगी नहीं रह गया था। फलत: बंगला, गुजराती, मराठी और मध्य देश में 'भाषा' नाम से अनेक जन-भाषारूप उभरते चले गए। 12 ___ ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी में काश्मीर और काशी ही नहीं बंगाल में नदिया, दक्षिण भारत में तंजोर तथा महाराष्ट में कल्याण भी ज्ञान के केन्द्रों के रूप में प्रतिष्ठित हो गए थे। कन्नौज तथा उज्जैन भी पूर्ववत् विद्या-केन्द्र बने रहे । ज्ञान के क्षेत्र में ज्योतिष, वैद्यक, संगीत, अलंकारशास्त्र, दर्शन, धर्मशास्त्र, न्याय तथा व्याकरण आदि विषयों की प्रधानता थी। अत: गुप्तकाल की तरह इस समयावधि में भी काव्य प्रकाश, सिद्धान्तशिरोमणि, नैषधीयचरित, गीतगोविन्द तथा राजतरंगिणी जैसे महान एवम् प्रसिद्ध ग्रन्थ भारतीयों के मस्तिष्क एवम् प्रतिभा के ज्वलन्त उदाहरण बनकर प्रस्तुत हुए। इन ग्रन्थों की ज्ञानगंगा में अवगाहन करने के उपरान्त सहज ही कहा जा सकता है कि भारतीय प्रतिभा ने इस युग को भी कुण्ठित नहीं होने दिया।
SR No.521858
Book TitleApbhramsa Bharti 1999 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1999
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size9 MB
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