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अपभ्रंश भारती
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खण्डकाव्य, मुक्तक, नाटक, चम्पू, गद्यकाव्य, कथाकोश इत्यादि सभी साहित्यिक अंगों पर आधारित रचनाएँ कीं। इसके अतिरिक्त हिन्दू तथा बौद्धाचार्यों की तरह विशाल स्तोत्र-साहित्य भी उन्होंने लिखा। जैनों ने अपने साहित्य में रामायण, महाभारत तथा प्राचीन पुराणों की कथाओं को विशिष्ट स्थान प्रदान किया परन्तु इनके साहित्य में उक्त ग्रन्थों का रूप परिवर्तित हो गया।
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धीरे-धीरे जैन धर्म का भी विभाजन हो गया, जिसके अनुसार दक्षिण में दिगम्बर और गुजरात-राजपूताना में श्वेताम्बर सम्प्रदाय को प्रधानता मिली। दक्षिण में तमिल चेर, पांड्य और चोल राजाओं ने जैनों से प्रभावित होकर उन्हें आश्रय प्रदान करते हुए जैन गुरुओं को दान दिया तथा उनके लिए मन्दिरों, मठों इत्यादि का भी निर्माण कराया, परन्तु दक्षिण में शैव धर्म का अत्यधिक प्राबल्य होने के कारण जैन धर्म को आहत होकर पलायन करना पड़ा। राजपूत क्षत्रियों की तलवारों तथा विद्या के लिए प्रसिद्ध गुजरात और राजपूताना में जैन धर्म का प्रचारप्रसार होना अपने आप में आश्चर्य की बात है । ज्ञातव्य है कि भारतवर्ष को हिंसा और अहिंसा समय-समय पर प्रभावित करती रही है। अपभ्रंश काल में पुन: अहिंसा की लहर आई और सम्पूर्ण भारतवर्ष को प्रभावित किया। इसीलिए गुजरात, मालवा और राजपूताना में उस समय जैन धर्म का सितारा चमका, जिसमें जैनाचार्य हेमचन्द्र जैसे अनेक आचार्यों का विशिष्ट योगदान था । यद्यपि उत्तर भारत में उस समय वैष्णव धर्म का प्रभाव था और जैन धर्म उत्तर भारत के अन्य देशों तथा बंगाल में अपना प्रभुत्व स्थापित नहीं कर सका, फिर भी अनेक जैन व्यापारियों के इन प्रदेशों में जाकर व्यापार करने के कारण अहिंसा का प्रचार वैष्णव धर्म के साथ सिन्धु नदी से लेकर ब्रह्मपुत्र तक पहुँचाया गया । अहिंसा के प्रचार के परिणामस्वरूप पशु-पक्षी - हत्या तथा मांस-भक्षण पर भी नियन्त्रण हो गया। चूँकि वैष्णव धर्म में जैन धर्म की भाँति जप-तप-त्याग `की कठोरता नहीं थी, इसलिए जनसामान्य ने इसे शीघ्र ही सहजता के साथ ग्रहण कर लिया। इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि ग्यारहवीं एवम् बारहवीं शताब्दी में जैन धर्म की पश्चिमी भारत में, शैव धर्म की दक्षिण में तथा वैष्णव धर्म की विशेषरूप से उत्तर और पूर्वी भारत में प्रधानतां थी। जैन एवम् बौद्ध धर्म की ही तरह शैव और वैष्णव भी अलग-अलग सम्प्रदायों में विभक्त होकर भिन्न-भिन्न व्यक्तिगत सिद्धान्तों, विचारों एवम् धारणाओं में विभक्त हो गये । अतएव पारस्परिक भेदभाव की जड़ें भी मजबूत होने लगीं तथा सामाजिक एकता नष्ट-भ्रष्ट हो गई और "प्राचीन वैदिक धर्म में धीरे-धीरे परिवर्तन होता रहा । परमात्मा के भिन्न-भिन्न नामों को देवता मानकर उनकी पृथक् पृथक् उपासना आरम्भ हो गई थी। ईश्वर की भिन्न-भिन्न शक्तियों और देवताओं की पत्नियों की भी पूजा होने लगी । ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, बाराही नारसिंही और ऐन्द्री इन सात शक्तियों को मातृका का नाम दिया गया है। काली, कराली, चामुण्डा और चण्डी नामक भयंकर और रुद्र शक्तियों की भी कल्पना की गई। आनन्दभैरवी, त्रिपुरसुन्दरी और ललिता आदि विषय-विलास-परक शक्तियों की भी कल्पना की गई। इनके उपासक शाक्त, शिव और त्रिपुरसुन्दरी के योग से ही संसार की उत्पत्ति मानते थे । '
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