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________________ 88 अपभ्रंश भारती - 11-12 जहिं चउपयाइँ तोसियमणाइँ धण्णइँ चरंति जहिँ चुमुचुमंति केयारकीर वरकलमसालिसुरहियसमीर। जहिँ गोउलाइँ पउ विक्किरंति पुंडुच्छुदंडखंडई चरंति। जहिँ वसह मुक्कढेक्कार धीर जीहाविलिहियणंदिणिसरीर। जहिँ मंथरगमणइँ माहिसाइँ दहरमणुड्डावियसारसाईं। काहलियवंसरवरत्तियाउ वहुअउ घरकम्मि गुत्तियाउ। संकेयकुडुंगणपत्तियाउ जहिँ झीणउ विरहिं तत्तियाउ। जहिँ हालिणिरूवणिवद्धचक्खु सीमावडु ण मुअइ को वि जक्छु। जिम्मइ जहिँ एवहि पवसिएहिँ दहि कूरु खीरु घिउ देसिएहिँ। . पवपालियाइ जहिँ बालियाइ पाणिउ भिंगारपणालियाइ। दितिएँ मोहिउ णिरु पहियविंदु चंगउ दक्खालिवि वयणचंदु। जहिं चउपयाइँ तोसियमणाइँ धण्णइँ चरंति ण हु पुणु तिणाइँ। उज्जेणि णाम तहिँ णयरि अस्थि जहिँ पाणि पसारइ मत्तु हत्थि। घत्ता - मरगयकरकलियहिँ महियलि घुलियहिँ फुरियहिँ हरियहिँ मूढमइ। विणडिउ दुव्वासहिँ रसविण्णासहिँ णीणिउ मिटुिं मंदगइ॥21॥ जसहरचरिउ 1.21 उस प्रदेश के खेतों में शुक चुन-चुनकर धान्य खाते हैं । वहाँ कलम और शालि जाति के धान्यों से सुगन्धित पवन बहती है । गोकुल खूब दूध बखेरते हैं और मोटे इक्षुदण्ड के खण्ड चरते हैं । वहाँ बड़े-बड़े बैल डकार छोड़ते हुए तथा अपनी जीभ से गायों के शरीर को चाटते दिखाई देते हैं । वहाँ कहीं धीमी चाल चलते हुए अथवा पानी के डबरों से सारसों को उड़ाते हुए महिष दिखाई देते हैं । काहली और बाँसुरी की मधुर ध्वनि में अनुरक्त बहुएँ अपने घर के काम-काज में लगी हैं। अपने गुप्त संकेत-स्थल में पहुँचकर विरह से तप्तायमान प्रेमिकाएँ उदास हुईं अपने प्रेमियों की प्रतीक्षा कर रही हैं । वहाँ कृषकों की स्त्रियों के सौन्दर्य पर अपनी आँखें गड़ाये हुए कोई एक यक्ष सीमावर्ती वट वृक्ष को नहीं छोड़ता। वहाँ के देशीय जन प्रवासियों को यों ही दही, भात और खीर का भोजन कराते हैं। वहाँ बालिकाएँ पाल (प्रपालिका अर्थात् प्याऊ चलानेवाली बालिकाएँ) भंगार व नालिका द्वारा जल पिलाती हुईं अपना सुन्दर मुखचन्द्र दिखाकर पथिक-वृन्द को अत्यन्त मोहित कर लेती हैं। वहाँ चौपाये सन्तुष्ट मन से धान्य चरते हैं, न कि तृण । वहाँ उज्जयिनी नामकी नगरी है। वहाँ महाबल द्वारा हस्तिशाला से बाहर निकाला गया मत्त हाथी मन्द गति से चलता हुआ भ्रमवश मूढता को प्राप्त होकर भूमिपर बिखरी हुई उस दुर्गन्धयुक्त और रस-विहीन सड़ी घास की ओर भी अपनी लँड फैलाने लगता है क्योंकि वह आसपास जड़ी हुई मरकत मणियों की किरणों से मिलकर हरी घास के समान चमक उठती है। अनु. - डॉ. हीरालाल जैन
SR No.521858
Book TitleApbhramsa Bharti 1999 11 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1999
Total Pages114
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size9 MB
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