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अपभ्रंश भारती - 11-12
87 जहि मण पवन न संचरइ रवि ससि नाहिं पवेस।
तहि बढ़ चित्त विसाम करु सरहें कहिअ उएसु॥ इस अवाङ्मनोगोचर, चतुष्कोटि विनिर्मुक्त, भावाभाव विवर्जित 'सहज' में मन एवं पवन का संचार नहीं होता। वहाँ रवि एवं शशि का प्रवेश या द्वन्द्व असम्भव है। इसी सहज स्थिति में चित्त को विश्राम देने का उपदेश सरहपाद ने दिया है। सरहपाद के कतिपय दोहों में 'सहज' की व्याख्या को गीतोक्त 'आत्मा' की व्याख्या के आलोक में देखा जा सकता है।
संकपास तोखउ गुरु वअणें। न सुगइ सोणउ दीसइ न अणें। पवन बहत्ते णहु सो हल्लई। मलन जलत्ते न सो उज्झइ।
घणि वरसत्ते णहु सोम्मइ। नउ वज्जइ णउ खअहि पइस्सइ॥ सरह मानते हैं कि सहजोन्मुखी साधना के लिए गुरु की अनिवार्यता है, वही शंका-पाश को नष्ट कर सकता है। यह सहज श्रवण से अश्रव्य, दृष्टि से अदृश्य, पवन से अस्पृश्य और अकम्य, अग्नि से अदाह्य, घनवर्षण से न भीगनेवाला और समरस तथा आनन्दमय बताया गया है।
अपने रचि रचि भवनिर्वाणा। मिर्छ लोअ बन्धावए आणा॥ अहें णजाणहुं अचित्त जोइ। जएमरण भव कइसण होई॥ जइसो जाममरणवि तइसो। जीवत्ते मइलें साहिं विशेषो॥ जा एथु जाममरणे विसका। सो करउ रस रसनिरका ॥ जे सचराचर तिअस मेमत्ति। ते अजरामर किम्पि न होस्ति।
आमे काम कि कामे आम। सरभणति अचिन्त सो धाम॥ संसार से बन्धन और मुक्ति - इन दो विकल्पों को रच-रचकर कपोल-कल्पना कर लोग व्यर्थ ही अपने को चक्कर में डालते हैं। मैं तो परमात्मलीन-अचिन्त्य योग-सिद्ध हो चुका हूँ, हमारी तो समझ में ही नहीं आता कि जन्म-मरण लक्षित संसार का स्वरूप कैसा और किस तरह का है? मेरे लिए तो जैसा जन्म वैसा ही मरण; कारण, मैं तो जीवित रहते ही मुक्त हूँ, अब जीवन क्या और मृत्यु क्या? मुझे तो दोनों में कुछ विशेष प्रतीत नहीं हो रहा है। जिसको जन्म-मरण में विकल्प रहता है वही रस-रसायनादि के द्वारा योग-साधन की इच्छा करता है। जो लोग चराचर लोक में, मृत्यु भुवन या स्वर्ग लोक में भ्रमण करते रहने की बात करते हैं उन्हें अजर-अमर नहीं माना जा सकता। मुक्त तो वही है जिसकी आत्मा नित्य अविनाशी आनन्द में लीन हो । सरह कहता है कि वह इस विवाद में नहीं पड़ेगा - उसको तो एक ही धाम है - अनुत्तर ।
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उज्जैन - 456010 (म.प्र.)