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अपभ्रंश भारती - 9-10
ठहरेगा। डॉ. साहब ने उक्त सब बातों के आधार पर 'संदेश रासक' का रचना काल सन् 1213 ई. के आस-पास स्वीकार किया है। इस रूप में डॉ. जैदी का यह प्रयास स्तुत्य तो है, इसमें कोई संदेह नहीं, किन्तु समस्त तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में वह फिर भी विचारणीय है।
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कवि ने अपना उल्लेख ' अद्दहमाण' के रूप में किया है और 'अद्दहमाण' से ' 'अब्दुल रहमान' (अब्दुर्रहमान) का आशय लिया गया है, क्योंकि दोनों टीकाकारों ने इसी रूप में नामोल्लेख किया है और वे इस विषय में एकमत हैं। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने 'अद्दहमाण' के अर्थरूप पर तो विचार कर 'अद्दहमाण' का अर्थ ' आहितयशा:' ( अद्दह का अर्थ रक्षित या आहित अर्थात् जिसका मान या यश प्राकृत काव्यों में और गीत विषयों में सुरक्षित रहेगा। अत: उसका अद्दहमाण नाम पूर्णत: सार्थक है) किया है' किन्तु उन्होंने ' अद्दह्माण' के शब्द-रूप पर विशेष विचार नहीं किया जब कि इस पर विशेष ध्यान दिया जाना आवश्यक था । जैसे- 'चउमुह' का 'चतुर्मुख' और 'तिहुण' का 'त्रिभुवन' शब्द-रूप निश्चित किया गया है और जो वास्तविक है, उसी प्रकार 'अद्दहमाण' का वास्तविक शब्द-रूप स्थिर करना उचित होगा, क्योंकि - 'संदेश रासक' के अध्ययनोपरान्त किसी प्रकार भी यह किसी मुस्लिम कवि की कृति प्रतीत नहीं होती। इसलिए यह तथ्य विचारणीय है ।
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'संदेश - रासक' के रचना कौशल से पता चलता है कि कवि प्राकृत अपभ्रंश काव्य में निष्णात था, ऐसा उसके आत्म-निवेदन से भी प्रगट है । कृति के अध्येता को पदे पदे यह विश्वास होता चलता है कि कवि को भारतीय - साहित्य-परम्परा का पूर्ण ज्ञान है और उसमें भारतीयसाहित्य के संस्कार पूरी मात्रा में विद्यमान थे। उसकी सांस्कृतिक प्रवृत्तियों में अभारतीयता का कहीं लेश भी नहीं मिलता। उसके भाव और विचार पूर्णतया भारतीयत्व से पगे हैं। अतः 'संदेशरासक' को किसी अहिन्दू कवि की रचना मानना उचित नहीं है। हाँ, यहाँ एक तथ्य का और उल्लेख कर दूँ – ‘संदेश - रासक' के रड्डा छंद सं. 223 के अंत में दिए हुए दोहे का सीधा अर्थ है- 'जिस प्रकार उस नायिका का अचिन्तित महान् कार्य क्षणार्द्ध में ही सिद्ध हो गया, उसी प्रकार पढने-सुननेवालों का भी हो, अनादि - अनन्त परम पुरुष की जय हो ।' उक्त दोहे के अंतिम चरण के 'जयउ अणाइ अणंतु' शब्द-पाठ पर आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने विचार किया है और इसका अर्थ उपर्युक्त रूप में ही किया है, किन्तु साथ ही रचना की 'सी' प्रति में प्राप्त पाठ पर भी विचार किया है। वह पाठ 'जयउ अणाइतु अंतु' के रूप में है और द्विवेदीजी ने इस पाठ को बहुत महत्त्वपूर्ण माना है । उन्होंने इसका अर्थ किया है- 'उसी प्रकार पढ़ने-सुनेवालों के अनागत अंत की जय हो' अर्थात् पढ़ने-सुननेवालों के मन में जो भी इच्छा हो, उसका अंत भविष्य में जय युक्त होवे। उनके विचार से 'अनागत अंत' का अर्थ है - " कयामत का दिन । इस पाठ एवं अर्थ के आधार पर द्विवेदीजी ने कवि को निश्चितरूप से मुस्लिम-धर्मानुयायी माना है। उनका कथन है कि - 'यह पाठ कवि को निश्चितरूप से मुस्लिम धर्मानुयायी सिद्ध करता है। किंतु द्विवेदीजी का इस पाठ को लेकर किया गया वैचारिक ऊहापोह सार्थक नहीं है और उक्त पाठ से किया गया अर्थ भी खींचतान पर ही आधारित है, क्योंकि 'अनागत' के लिए ‘अणागय' शब्द होता है ( पाइय सद्द महण्णव) न कि 'अणाइतु' । मेरे विचार में 'अणाइतु
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