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अपभ्रंश भारती - 9-10
णिवेण लोएण सरवरं तो णिवेण लोएण सरवरं
लक्खियं असेसं पि मणहरं। णीलरयणपालीए पविउलं
कमलपरिमलामिलियअलिउलं। अमरललणकयकीलकलयलं
चलियवलियउल्ललियझसउलं। कलमरालमुहदलियसयदलं
लुलिय कोलउलहलियकंदलं। पीलुलीलपयचलियतलमलं
गलियणलिणरयपिंगहुयजलं। अणिलविहुयकल्लोलहयथलं
तच्छलेण णं छिवइ णहयलं। पत्थिउ व्व कुवलयविराइयं
पुंडरीयणियरेण छाइयं। करिरहंगसारंगभासियं
छंदयं विलासिणि पयासियं। घत्ता - सरु पेच्छेवि लोउ हरिसें कहिँ मि ण माइउ। माणससरे णाइँ अमरणियरु संपाइउ ॥
सुदंसणचरिउ 7.16 तभी राजा व अन्य लोगों ने सरोवर की ओर लक्ष्य किया, जो समस्तरूप से मनोहर था। वह अपने नील रत्नों की पालि (पंक्ति) से अतिविपुल दिखाई दे रहा था। वहाँ कमलों की सुगंध से भ्रमरपुंज आ मिले थे। देवललनाओं की क्रीड़ा का कलकल शब्द हो रहा था। मछलियों के पुंज चल रहे थे, मुड़ रहे थे, और उछल रहे थे। कलहंसों के मुखों द्वारा शतदल कमल तोड़े जा रहे थे; तथा डोलते हुए वराहों के झुण्डों द्वारा जड़ें खोदी जा रही थीं। हाथियों की क्रीड़ा से उनके पैरों द्वारा तले (नीचे) का मल (कीचड़) चलायमान होकर ऊपर आ रहा था। कमलों से झड़ी हुई रज से जल पिंगवर्ण हो रहा था। पवन से झकोरी हुई तरंगों द्वारा थलभाग पर आघात हो रहा था, मानो वह उसी बहाने नभस्तल को छू रहा हो। वह सरोवर कुवलयों (नील कमलों) से शोभायमान, पुंडरीकों (श्वेत कमलों) के समूहों से आच्छादित, हाथियों, रथांगों (चक्रवाक पक्षियों) तथा सारंगों (चातकों) से उद्भासित था, अतएव वह एक राजा के समान था, जो कुवलय (पृथ्वी-मंडल) पर विराजमान प्रधानों के समूह से शोभायमान तथा हाथियों, रथों और घोड़ों से प्रभावशाली हो। (यह विलासिनी छन्द प्रकाशित किया।) उस सरोवर को देखकर लोग हर्ष से कहीं समाए नहीं, मानो देवों का समूह मानस सरोवर पर आ पहुँचा हो।
अनु. - डॉ. हीरालाल जैन