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अपभ्रंश भारती - 9-10
69 जिस हँसी में मनुष्य अट्टाहास करने लगता है, आँखों में आँसू आ जाते हैं, पसलियों को दबा कर जोर-जोर से लगातार हँसता है और जिसका स्वर सुनने में बुरा लगता है, अधम पुरुषों के उस हास्य को अतिहसित कहते हैं। ___ जंबूसामि चरिउ में हास्य रस की सामग्री अल्प है । जब जंबूकुमार भ्रमणार्थ निकलते हैं तब उन्हें देखने के लिए नारियाँ इतनी उतावली हो जाती हैं कि वे जल्दी-जल्दी में उल्टा-सीधा शृंगार कर लेती हैं । कोई स्त्री जो बाहुओं में कंचुकी पहन चुकी थी वह उसे कंठ में नहीं पहन पायी। कोई उतावलेपन के कारण गले में हार न पहन सकी और अपने विशाल नेत्र को अधूरा अंजन लगा पाई। कोई एक वलय को हाथ में पहनती हुई केशपाश को लहराती हुई, कांपती हुई मंडनकर्म को पूरा नहीं करती हैं 20
नारियों का यह शृंगार विपर्यय हास्य रस की व्यंजना का हेतु बन पड़ा है किन्तु यहाँ मात्र विभावों का ही वर्णन है। वीररस के अनुभाव
काव्य/नाट्य के पात्रों में दान, दया, धर्म और युद्ध के लिए जो उत्साह दिखलाया जाता है उससे सामाजिक का उत्साह उबुद्ध होकर वीररस में परिणत हो जाता है । काव्य/नाट्य में उत्साह का प्रदर्शन, दृढ़ता, धैर्य, शौर्य, गर्व, उत्साह, पराक्रम, प्रभाव,आक्षेप वाक्य (शत्रु को कायर आदि बतलानेवाले वचन) त्याग आदि अनुभावों के द्वारा किया जाता है।22
गगनगति विद्याधर अपने प्रवासकाल के बीच में राजगृही के राजा की सभा में अपने शत्रु रत्नशेखर विद्याधर के शौर्य, शक्ति और आतंक तथा परिमित साधनवाले अपने बहनोई राजा मृगांक पर आयी आपत्ति को बतलाता है तथा अकेले ही क्षत्रिय धर्म का पालन करते हुए रण में मरने की बात कहता है, तब राजा उन्हें रोककर सान्त्वना देता है और जंबूकुमार की वीरता को दर्शाता है। ___ यह सब बोलने से क्या? यह अकेला ही बालकं समर्थ यम के लिए भी यम होने में समर्थ है। सूर्य के लिए भी (सूर्य के तेज को अपने तेज से पराभूत करनेवाला) सूर्य है और आकाश में क्रूर राहू के लिए भी क्रूर है । यह स्वर्गस्थ शक्र का भी शक्र और पक्षिराज (गरुड़) के लिए भी (सुदर्शन)चक्र के समान है। यह शेष (नाग) के सिर पर हाथ से ताड़न करनेवाला तथा उसके फणामंडल से मणि को छुड़ा लेनेवाला है। इसके प्रताप से दग्ध होकर अग्नि भी शीतल होकर भस्मराशि मात्र रह जाता है, इस बालक के खड्ग ग्रहण करने पर शत्रु अपना समय पूरा होने से पहले ही मृत्यु को प्राप्त होता है।
यहाँ जंबूकुमार की वीरता को संकेतित करनेवाले ये वाक्य अनुभाव हैं जो उसके पराक्रम, शौर्य की अनुभूति कराते हैं।
रत्लशेखर विद्याधर जब माया युद्ध में राजा मृगांक को पराजित कर बंदी बना लेता है तब गगनगति विद्याधर जंबूकुमार से कहता है - तुम ही उसका (मृगांक का) उद्धार करो! हे बांधव!