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अपभ्रंश भारती - 9-10
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करती चली आ रही है, कहते हैं। उन्होंने कवि प्रसिद्धि तथा कविसमय का अर्थ काव्य में प्रयुक्त सभी रुढ़ियों से लिया है जो सत्य न होने पर भी सत्य जैसी उल्लिखित हैं । हिन्दी साहित्य कोश में डॉ. धीरेन्द्र वर्मा आचार्य राजशेखर की अनुमोदना करते हैं।"
उपर्यंकित संक्षिप्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि 'कवि समय' को 'कवि ख्याति', 'कविप्रसिद्धि', कविरुढ़ि आदि नामों से अभिहित किया गया है। इन सब में कवि अपनी अभिव्यक्ति को सशक्त करने के लिए कविसमय की प्रवृत्ति और परम्परा का पालन करता है। ___ काव्य में 'कविसमय' के प्रयोग की एक विशद और व्यापक परम्परा रही है। इस सुदीर्घ परम्परा को हम (कविसमय की) निम्न वर्गों में विभक्त कर सकते हैं। यथा - (1) अलौकिक कवि समय। (2) लौकिक कविसमय। (3) नवीन उद्भावनाएँ। (4) स्त्री-पुरुष के अंग विशेष के रुढ़ि तथा नवीन उपमान।
आचार्य राजशेखर ने कविसमय की चर्चा करते हुये उन्हें तीन भागों में विभक्त किया है। यथा - (1) स्वर्ग्य, (2) पातालीय, (3) भौम। स्वर्ग्य कविसमय की सुदीर्घ तालिका को निम्न रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है । यथा - (1) चन्द्रमा में शश और मृग-चिह्न की एकता। (2) कामदेव के ध्वज-चिह्नों में मकर-मत्स्य की एकता। (3) चन्द्रमा की उत्पत्ति अत्रि नेत्र तथा समुद्र दोनों से ही मानना। (4) शिव के मस्तक का चन्द्रमावाले रूप में वर्णन करना। (5) कामदेव का मूर्त और अमूर्त दोनों रूपों में वर्णन करना। (6) बारह आदित्यों की एकता। (7) दामोदर, शेष, कर्म, लक्ष्मी तथा सम्पद् में एकता। पातालीय कविसमय का मूलाधार निम्नांकित हैं - (1) सर्पो और नागों की एकता। (2) दैत्य, दानव तथा असुर में एकता।