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अपभ्रंश भारती - 9-10 लेखनी द्वारा पूर्ण कर काव्य को समृद्ध किया। सम्पूर्ण कृति में कहीं-न-कहीं कुछ-न-कुछ जोड़ा है जिससे सम्पूर्ण कृति में एक अनुपम निखार आया है। इस तरह वर्तमान 'पउमचरिउ' स्वयंभू
और त्रिभुवन दोनों महान कवियों की सम्मिलित कृति है, देन है । सावधानीपूर्वक देखा जाए तो दोनों की रचनाओं में अन्तर परखने लगेगा। भाव, भाषा और शैली तीनों में कविवर स्वयंभू की कोई 'सानि' नहीं है, वहीं क्लिष्ट एवं पांडित्यपूर्ण भाषा-शैली का उच्छल आवेग पुत्र की रचनासंसार में परिलक्षित हो जाता है। यथा
तिहु वणो जइ विण होंतु, वांदणोसिरि-सयंमु-एवस्स। कव्वं कुल-कवित्त तो पच्छा को समुद्धरह॥
1. हरिवंश कोछड़-अपभ्रंश साहित्य, 1956। 2. मधुसूदन चिमनलाल मोदी-अपभ्रंश पाठावली (गुजराती) अहमदाबाद, 1992 वि.। 3. हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग - नामवरसिंह, लोक भारती प्रकाशन, 1965,
. इलाहाबाद। 4. अपभ्रंश भाषा और साहित्य की शोध-प्रवृत्तियाँ – डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री, 1972,
भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली। 5. अपभ्रंश साहित्य की विभिन्न विधाओं का संक्षिप्त अध्ययन - डॉ. संजीव प्रचंडिया
'सोमेन्द्र', अलीगढ़। 6. अपभ्रंश साहित्य और उसकी प्रवत्तियाँ-वही।
मंगलकलश, 394, सर्वोदय नगर आगरा रोड, अलीगढ़-202001