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________________ 30 अपभ्रंश भारती - 9-10 ___मेरे कहने का आशय सिर्फ इतना है कि कवि कह रहा है राम कथा, पर उसमें भी उसे पर्याप्त समय मिलता है गृहस्थ-धर्म, सामाजिक आचार-विचार, लोक की रुढ़ियाँ साथ ही लोक की अपरिमेय कल्पनाएँ भी; यानी स्वप्न देखकर उसका विचार और वह भी विचित्र स्वप्न; कभीकभी कवि की विचार वल्लरी इस तरह प्रसारित होती चलती है कि पाठक को आश्चर्य होता है, साथ ही उसका सुखद प्रभाव भी पड़ता है। उदारहण के लिए युद्ध के दृश्य में स्वयंभूदेव का यह कहना भञ्जन्ति खम्भ विहऽन्ति मञ्च दुक्कवि-कव्वा लाव व कु-सञ्च हय गय सुण्णा सण संच रत्ति णं पसुक्ति-लोयण परिभमन्ति स्तम्भ और मंच इस तरह से टूट रहे थे जिस तरह से कुकवि का अनगढ़ काव्य-शब्द तथा हाथी और घोड़ों के आसन शून्य हो गये थे, वे इस तरह दौड़ रहे थे जैसे वेश्या के नेत्र घूमते हैं । वेश्या के नेत्रों का घूमना और उसकी कल्पना कवि के साथ पाठक को भी (उसके यानी) कवि के सूक्ष्म निरीक्षण को आश्चर्य के साथ ही देखती है। रावण द्वारा एक प्रचण्ड शक्तिशाली हाथी को वश में करने पर कवि की उक्ति पुनः कुछ इसी तरह की हैहत्थि-विचारणाउ एयारह। अण्णउ किरियउ वीस दु-वारह॥ दरिसें वि किउ। णिफन्दु महा-गउ। धुत्तें वेस-मर ठु व भग्गउ॥ हाथी को वश में करने की ग्यारह तथा अन्य चालीस क्रियाओं का प्रदर्शन कर, उसने (रावण ने) उस शक्तिशाली हाथी को पराजित किया ठीक उसी तरह जैसे कोई धूर्त वेश्या के घमण्ड को चूर-चूर कर दे। पुनः एक जगह महाकवि कुलवधू की गरिमा को बताते हैं । इससे यह पता चलता है कि लोकाचारों के प्रति जैन ग्रन्थों में गहरी आस्था है। आश्चर्य होता है कि बहुत सारे सम्बन्धों के प्रति कवि की मान्यता प्रचलित लोक मान्यताओं से हटकर नहीं है । लोक की घिनौनी हरकतें भी इन शस्त्रीय (जैन) ग्रन्थों में यथावसर आ गयी हैं । उदाहरण के लिए परपुरुष रावण से साहचर्य के लिए लालायित उपरम्भा की कथा कवि ने दी है और रावण के मुख से असती नारी की निन्दा में कुछ शब्द कहलाये हैं - रावण असती स्त्री को यम नगरी की तरह भयंकर संसार का नाश करनेवाली बिजली, विष भरे साँप का फन और आग की प्रचण्ड ज्वाला मानता है, इतना ही नहीं; वह ऐसी नारी को मनुष्य को बहा ले जानेवाली नदी तथा घर के बाघ के रूप में देखता है। दुम्महिल जि भीसण जम-णयरि दुम्महिल जि असणि जगन्त-यरि दुम्महिल जि स-विस भुयङ्ग-फड
SR No.521857
Book TitleApbhramsa Bharti 1997 09 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1997
Total Pages142
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size10 MB
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