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________________ 22 अपभ्रंश भारती - 9-10 मौलिक तथा नैसर्गिक चिंतन को उजागर करते हैं । काव्यात्मक उत्कर्ष की पराकाष्ठा तथा मार्मिक स्थलों की हृदयस्पर्शी अभिव्यंजना 'पउमचरिउ' की प्रमुख विशिष्टता है। स्वयंभू का जीवन के प्रति आस्थापूर्ण दृष्टिकोण 'पउमचरिउ' के माध्यम से व्यंजित होता है। स्वयंभू ने 'पउमचरिउ' में उच्च मूल्यों की प्रतिष्ठा की है। उनकी उत्कृष्ट रामकथा को देखते हुए डॉ. हरीश उन्हें अपभ्रंश का वाल्मीकि कहते हैं तथा स्वयंभू के 'पउमचरिउ' की मौलिकता पर भी डॉ. हरीश अपने विचार व्यक्त करते हैं।7 डॉ. नामवर सिंह भी स्वयंभू को अपभ्रंश का वाल्मीकि कहते हैं ।48 स्वयंभू की काव्यप्रतिभा को परिलक्षित करते हुये डॉ. भायाणी कहते हैं - स्वयंभू की गणना उन भाग्यशाली लेखकों में होनी चाहिये, जिन्हें उनके जीवनकाल में ही साहित्यिक प्रसिद्धि की मान्यता मिली जिन्हें परवर्ती पीढ़ियों द्वारा प्रवर्धित किया गया। उन्हें उनके जीवनकाल में कविराज के नाम से जाना जाता था तथा उनके पुत्र त्रिभुवन उनकी शानदार प्रशंसा करते हुये कभी नहीं थकते। स्वयंभू कृत 'पउमचरिउ' अपभ्रंश रामकाव्य परम्परा की अमूल्य निधि है, जिसका प्रभाव परवर्ती रामभक्त रचनाकारों पर भी स्वीकारा जाता है। हिन्दी रामकाव्य परम्परा के सर्वप्रमुख मर्मज्ञ कवि तुलसीदास पर भी यह प्रभाव परिलक्षित होता है । तुलसी ने अपनी रामकथा के प्रेरणास्रोतों के संदर्भ में एक शब्द 'क्वचिदन्यतोपि' का उल्लेख किया है, राहुल सांकृत्यायन जी के अनुसार इसका आशय स्वयंभू रामायण से ही है। डॉ. रामसिंह तोमर, डॉ. संकटाप्रसाद उपाध्याय तथा डॉ. हरिवंश कोछड़ भी परवर्ती रामकाव्यों पर 'पउमचरिउ' का प्रभाव स्वीकारते हैं। विभिन्न विद्वानों के विचारोल्लेख के उपरांत 'पउमचरिउ' की महत्ता स्वयंसिद्ध हो जाती है। सफल रचना वही होती है जो शताब्दियों की धुंध में धूमिल नहीं होती है वरन् कालांतर, में अधिक प्रासंगिक हो जाती है। स्वयंभू यथार्थ जीवन के प्रतिष्ठापक, उदात्त विचारों के पोषक तथा एक क्रांतिकारी युगकवि थे, उन्होंने 'पउमचरिउ' के माध्यम से हिन्दी साहित्य को कई अर्थों में मौलिक संदेश दिये हैं। 1. इक्ष्वाकूणमिदं तेषां राज्ञां वंशे महात्मनाम्। महदुत्पन्नमाख्यानं रामायण मिति श्रुतम् ॥ - वाल्मीकि रामायण, बालकाण्ड, सर्ग 3 2. डॉ. कामिल बुल्के, रामकथा, द्वितीय संस्करण 1962, पृ. 724, हिन्दी परिषद् प्रकाशन प्रयाग वि.वि., प्रयाग। 3. डॉ. हरिवंश कोछड़, अपभ्रंश साहित्य, पृ. 37-38, भारतीय साहित्य मंदिर, दिल्ली। 4. श्री नाथूराम प्रेमी, जैन साहित्य और इतिहास, पृ. 280। 5. डॉ. संकटाप्रसाद उपाध्याय, महाकवि स्वयंभू, पृ. 45, भारत प्रकाशन मंदिर, अलीगढ़। 6. डॉ. बी.एम. कुलकर्णी, दी स्टोरी ऑफ राम इन जैन लिटरेचर, अप्रकाशित शोधग्रंथ, बम्बई वि.वि., पृ. 261
SR No.521857
Book TitleApbhramsa Bharti 1997 09 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Gyanchandra Khinduka, Gopichand Patni
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1997
Total Pages142
LanguageSanskrit, Prakrit, Hindi
ClassificationMagazine, India_Apbhramsa Bharti, & India
File Size10 MB
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