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अपभ्रंश भारती - 9-10 उल्लिखित किया गया है। शेष चौंतीस छंदों में राम-रावण युद्ध, रावण-वध तथा सीता के उद्धार का वर्णन है। यह वर्णन सूर्पनखा के भयावह रूप के चित्रण से प्रारम्भ होता है। राम कुंभकर्ण को तत्पश्चात् रावण को धराशायी करते हैं । रावण के धराशायी होते ही राक्षसगण रुदन करने लगते हैं तथा देवगण प्रसन्न हो जाते हैं। प्रशस्तिगायक राम की स्तुति गाते हैं। अंत में सागरवंदना करके राम, सीता तथा लक्ष्मण सहित वहाँ से प्रस्थान करते हैं । रासो के आगामी छंदों में भी एकाधिक बार राम कथा का प्रसंग आया है। प्रस्ताव पइ, संयोगिता पूर्वजन्म प्रसंग तथा 'प्रस्ताव 63, आषेट चष श्राप नाम' में भी पुनः रामकथा का उल्लेख किया गया है।
डॉ. त्रिवेदी के अनुसार राम कथा संबंधी प्रसंग रासो के मध्यम तथा लघु संस्करण में ही प्राप्त होता है । लघुतम संस्करण में यह प्रसंग अप्राप्य है । तथापि रासो की रामकथा तथा:दशावतार वर्णन पर्याप्त प्राचीन है।
चंदवरदायी के उपरांत रइधू ने 'पद्मपुराण-बलभद्र पुराण' की रचना की। इस ग्रंथ का रचनाकाल वि.सं. 1496 से पूर्व माना जाता है । इस ग्रंथ की दो हस्तलिखित प्रतियाँ आमेर शास्त्र भंडार जयपुर में प्राप्त होती हैं । इसमें ग्यारह संधियों तथा दो सौ पैंसठ कडवकों में जैन मतानुसार रामकथा का वर्णन किया गया है। 'पद्मपुराण' की पुष्पिकाओं में इसके लिये 'बलभद्रपुराण' नाम भी प्राप्त होता है। प्रत्येक संधि की पुष्पिका में इस नाम का उल्लेख मिलता है। संधियों के प्रारंभ में संस्कृत के पद्यों द्वारा हरिसिंह की प्रशंसा और उनके लिए मंगलकामना की गई है। ग्रंथ का आरम्भ निम्नलिखित पद्य से किया गया है -
ॐ नमः सिद्धेभ्यः। परणय विद्धंसणु, मुणिसुव्वय जिणु, पणविवि वहु गुणगण भरिउ।
सिरि रामहो करेंउ, सुक्ख जणेरउ, सह लक्खण पयडमि चरिउ॥ इसके पश्चात् जिन स्तवन, तत्पश्चात् ग्रंथ प्रारम्भ किया जाता है । कथा वक्ता-श्रोता शैली में कही गई है। श्रेणिक प्रश्न करते हैं तथा इंद्रभूति उसका उत्तर देते हैं। डॉ. कोछड़ का मत है कि कथा वर्णित करने में शीघ्रता सी प्रतीत होती है।
उपरोक्त रामकाव्यों के अतिरिक्त अपभ्रंश रामकाव्य परम्परा में अन्य किसी रामकाव्य का उल्लेख नहीं प्राप्त हुआ, संभव है कि अन्य रामकाव्यं लिखे गये हों परन्तु प्रमाणों के अभाव में कुछ कहना अनुचित होगा। स्वयंभू के पूर्ववर्ती तथा परवर्ती रामकाव्यों के संक्षिप्त विवेचन के उपरांत अब अपभ्रंश रामकाव्य परम्परा में स्वयंभू कृत 'पउमचरिउ' का मूल्यांकन अपेक्षित है। 'पउमचरिउ' में यद्यपि कथा परम्परागत ढंग से वक्ता-श्रोता शैली में निबद्ध है परन्तु स्वयंभू की विलक्षण तथा स्वाभाविक गुणों से युक्त अभिव्यंजना शैली के कारण आद्योपांत कथा में आकर्षण बना रहता है। स्वयंभू सही अर्थों में सच्चे संवेदनशील कवि हैं। मानव मन को सत्यता के साथ उभार कर कुशलतापूर्वक चित्रित करने की उनमें अनूठी क्षमता है । स्वयंभू जैन धर्म द्वारा व्यष्टि तथा समष्टि दोनों में ही एक परिवर्तन, एक नैतिक क्रांति लाना चाहते हैं।