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अपभ्रंश भारती - 9-10
कहत विचार मन ही मन उपजी ना कहीं गया न आया।
कहै कबीर संसा सब छूटा रामरतन धन पाया। प्राणि रक्षा - प्राणिरक्षा से तात्पर्य है पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक - इन छ: काय के जीवों की रक्षा करना। मनुष्य, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, पर्वत, नदी, सरोवर, सागर आदि सभी जीवन्त प्राणी हैं और सभी मिलकर एक स्वच्छ, सुन्दर तथा सुखद पर्यावरण का निर्माण करते हैं। इनमें से किसी को भी नष्ट करने अथवा कष्ट देने से पर्यावरण में विघटन होता है। इसीलिये हमारे तीर्थंकरों ने ऋषि, महर्षि और विचारकों ने उक्त छ: काय के जीवों की रक्षा का उपदेश दिया है।
आज मानव की दिनों-दिन बढ़ती हुई भोगलिप्सा के कारण होनेवाले भूखनन, वृक्षोन्मूलन, समुद्रमन्थन, पर्वत-भेदन आदि के कारण जहाँ पर्यावरण-प्रदूषण का विकट संकट उपस्थित है वहीं निरपराध पशुओं से लेकर पंचेन्द्रिय मनुष्यों तक के शोषण, अपहरण तथा अकारण हनन से विश्व का संपूर्ण वातावरण विषाक्त बना हुआ है।
अपभ्रंश के जैन कवियों के अनुसार जो उक्त छ: काय के जीवों की रक्षा में तत्पर रहता है और अहिंसा को परम धर्म मानकर चलता है वही महामानव है। जैन कवि जोइन्दु कहते हैं कि सभी जीव समान हैं । मूर्खजन अज्ञान के कारण उनमें भेदभाव करते हैं, विवेकीजन सबको समान समझते हैं -
जीवहं तिहुयण संठियउ मूढ़ा भेउ करंति ।
केवलणाणिं णाणि फुड सयल वि एक्कु मुणंति ॥2.96॥ पर. प्र.. मुनि रामसिंह कहते हैं कि न केवल मनुष्यों और पशु-पक्षियों में ही अपितु वनस्पति में भी वही आत्मा है; जो मनुष्य में है। अतः वनस्पतियों को भी कष्ट नहीं देना चाहिये -
पत्तिय तोड़हिं तड़तड़हणाइ पइट्ठा उट्ठ।
एव म जाणहि जोइया को तोड़ को तुट्ठ ॥158।।पा. दो. रामसिंह के अनुसार पत्ती, पानी, तिल, दर्भ - इन सबमें समान जीव है। अत: इन वस्तुओं को तोड़कर परमात्मा के चरणों में चढ़ाने से मोक्ष की प्राप्ति कदापि नहीं हो सकती -
पत्तिय पाणिय दब्भ तिल सव्वइं जाणि सवण्णु।
जं पुणु मोक्खहं जाइ वढ, तं कारणु कुइ अण्णु॥159॥ पा. दो. वे कहते हैं - हे योगी। तू पत्तियों को मत तोड़ और फलों पर भी हाथ मत बढ़ा। जिस परमात्मा पर चढ़ाने के लिए इन्हें तोड़ता है उस परमात्मा को ही इन पर चढ़ा दे -