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अपभ्रंश भारती - 9-10
कबीर के विचार से भी विषय-वासनाओं से कभी तृप्ति नहीं हो सकती। वे भी कहते हैं कि यदि सांसारिक वैभव-विलास तथा विषय-वासनाओं के सेवन से ही सुख की प्राप्ति होती तो बड़े-बड़े समृद्धिशाली राजा-महाराजा अपने अतुल वैभव को छोड़कर वन का मार्ग क्यों ग्रहण करते? अतः विषय-वासनाओं की आसक्ति दु:ख का कारण है। सच्चे सुख की प्राप्ति तो इनसे विमुख होने पर ही हो सकती है, वे कहते हैं -
काहे रे मन दह दिसि धावै, विसिया संगि संतोस न पावै। जहाँ-जहाँ कलपै तहाँ-तहाँ बंधना, रतन को थाल कियौ तै रंचना। जो पै सुख पइयतु रज माहीं, तो राज छांडि कत वन को जाहीं। आनन्द सहित तजौ विस नारी अब क्या झीषै पतित भिखारी।
कहै कबीर यहु सुख दिन चारि तजि विसया भजि दीन मुरारि।' मन संयम- इन्द्रिय संयम के लिए मन संयम आवश्यक है। मन को वश में करके ही इन्द्रियों को वश में किया जा सकता है। इस मन की गति बड़ी विषम है। इसे रोकना बड़ा कठिन है। यह बार-बार इन्द्रिय-सुखों से आकृष्ट होकर उसे पाने के लिए लालायित रहता है। जोइन्दु मुनि पाँचों इन्द्रियों के नायक मन को वश में करने का निर्देश करते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार मूल के नष्ट हो जाने पर वृक्ष के पत्ते अवश्य सूख जाते हैं उसी प्रकार मन को वश में करते ही पाँचों इन्द्रियाँ वश में हो जाती हैं। अतः सर्वप्रथम इस मन को ही वश में करना चाहिये - .
पंचहं णायुक वसि करहु जेण होति वसि अण्ण।
मूल विणट्ठ तरु वरहं, अवसई सुकूइ पण्ण ॥ 2.140॥पर. प्र. जिसका मनरूपी जल विषय-कषायरूपी वायु के झोंके से क्षुब्ध नहीं होता उसी की आत्मा निर्मल होती है और वही निराकुल होता है -
विसय-कसायहिं मण-सलिलु णविडहुलिज्जइ जासु।
अप्पा णिम्मलहोइ लहु वढ। पंचक्खु वि तासु॥2.156॥ पर. प्र. कबीर भी इस मतवाले मन को अंकुश दे-देकर मोड़ते रहने को कहते हैं -
मैमंता मन मारि रै घट ही माहै धेरि ।
जब ही चालै पीढि दै अंकुस दै 4 मोरि । उनके अनुसार इस मन के टुकड़े-टुकड़े कर देने पर ही आत्मा को सुख की प्राप्ति हो सकती है -
मैमंता मन मारि रै, नान्हा करि करि पीसि।
तव सुख पावै सुन्दरी ब्रह्म झलक्कै सीसि ' कबीर कहते हैं कि मन की वृत्तियों को बाह्य विषयों से विमुख कर अन्तर्मुखी कर देने से वह विकार-मुक्त होकर विशुद्ध बन जाता है -