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अपभ्रंश भारती - 9-10 (5) कैकेयीपुत्र भरत ने नमस्कार करते हुए राम के चरणों पर अपना मस्तक रख दिया उस
समय ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो लालकमलों के मध्य नीलकमल रखा हुआ हो।" (6) राजा भरत, राम, लक्ष्मण तथा सीता ने एक साथ अयोध्या में इस प्रकार प्रवेश किया
मानो धर्म, पुण्य, व्यवसाय और लक्ष्मी ने एक साथ प्रवेश किया हो। (7) राम, सीता तथा लक्ष्मण ने राजकुल में प्रवेश किया। लक्ष्मण गोरे, राम श्यामवर्णीय
हैं तथा सीता का रंग सुनहला था। सीता राम तथा लक्ष्मण के मध्य इस प्रकार शोभित
हो रही थी मानो हिमागिरि तथा नवमेघों के मध्य रागिनी चमक रही हो। (8) सेनापति ने युद्ध में शक्ति से शत्रु को ऐसा आहत कर दिया मानो रात ने सूर्य को
अस्तकालीन पतन दिखाया हो। (9) युद्धस्थल में दोनों पक्षों के निरंतर प्रहार से तीरजाल ऐसा प्रवाहित हो उठा मानो
हिमाचल तथा विंध्याचल के मध्य में स्थित मेघप्रवाह हो।' (10) तीरों से आहत, लहुलुहान मधु राजा गजवर पर ऐसा लग रहा था मानो फागुन के माह
में पहाड़ पर पलाश का फूल खिला हो।' (11) राम के समीप सीता देवी उसी प्रकार स्थित थीं जैसे जिनधर्म में जीवदया प्रतिष्ठित
है।” (12) राम लक्ष्मण को रोकते हैं उस समय ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो यमुना के प्रवाह को
गंगा का प्रवाह रोक लेता है। (13) श्वेतोज्ज्वल चक्र लक्ष्मण की हथेली पर इस प्रकार शोभित हो रहा था जैसे कमल के
उपर 'कमल' रखा हो।" (14) परमेश्वरी परमसती सीतादेवी लकड़ियों के ढेर (अग्निपरीक्षा के समय) पर इस प्रकार
प्रतीत हो रही थीं मानो व्रत तथा शील के ऊपर स्थित हों।१० (15) अग्निपरीक्षा के समय अग्नि नवकमलों से युक्त सरोवर में परिवर्तित हो गयी। सरोवर
में एक विशाल कमल उग आया, सीता को सुर-वधुओं ने स्वयं उस कमलरूपी आसन पर बिठाया। उस समय सीता इस प्रकार शोभित हो रहीं थीं मानो कमल के ऊपर प्रत्यक्ष
लक्ष्मी ही विराजमान हों। (16) आर्यिकाओं से घिरी हुई सीता ऐसी लग रहीं थीं मानो ताराओं से अलंकृत ध्रुवतारा
हो, पवित्रता से आवृत्त शास्त्र की शोभा हो। मानो शासनदेवी ही उतर आयीं हों। 'पउमचरिउ' में वर्णित जैनधर्म तथा संप्रदाय । - विद्याधरकाण्ड की पहली संधि में स्वयंभू द्वारा चौबीस परम जिन तीर्थंकरों की वंदना की
गई है। विद्याधरकाण्ड की पांचवीं संधि में परमजिन मागध भाषा में कहते हैं- मेरे समान केवलज्ञान से संपूर्ण एक ही ऋषभ भट्टारक हुए हैं, तुम्हारे समान छह खण्ड धरती का स्वामी नराधिप