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अपभ्रंश भारती
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है जो हिंसा, युद्ध, शोषण, अराजकता की बुनियाद खड़ी करता है। शिकार पर्यावरण प्रदूषण का कारण है। इससे वन्य प्राणियों की दुर्लभ जातियाँ समाप्त हो जाती हैं। ये हमारे जीवन के अस्तित्व के लिए खतरा है और राष्ट्रीय सम्पत्ति को क्षति उठानी पड़ती है । व्यसन व्यक्ति की दिनचर्या को परिवर्तित कर देता है जिससे पारिवारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक स्वरूप विकृत हो जाता है ।
वर्तमान में हमारे सामने दो बहुत बड़े संकट हैं - निर्मानवीकरण (डी- ह्यमेनाइजेशन) और निर्भारतीकरण (डी-इंडियनाइजेशन) को निर्मानवीकरण के तथ्य को समझने की आवश्यकता है । सब जानते हैं कि मनुष्य संसार का सर्वोत्तम/सर्वोच्च विकसित सामाजिक अस्तित्व है । यदि वह 'वह' नहीं रहेगा तो हमारे चारों ओर जो कुछ अस्तित्व है वह सब चरमरा कर ढह जायेगा । आज हिंसा, क्रूरता, लोभ, लिप्सा और अन्तहीन अन्धी इच्छाओं की अतृप्ति का जो दौर है उसने मनुष्य को मनुष्य नहीं रहने दिया है। कत्लखानों और मांस उद्योग के रूप में हिंसा और क्रूरताएँ निरन्तर बढ़ रही हैं । आज हिंसा अधिक सुव्यवस्थित/वाणिज्यीकृत/राज्याश्रित है जबकि अहिंसा और सत्य दोनों ही अनाथ/अशरण हैं। इस बारे में हमें चिन्तित होना चाहिए। इस सिलसिले में हमारा पहला कदम यह हो कि हम बिना किसी ढील के 'संस्कृति' और 'विकृति' के अन्तर को समझें और भावावेश में नहीं, अपितु तर्क संगत शैली में विकृतियों का मुकाबला करें।
दूसरा संकट निर्भारतीयकरण का है। हम भारत के निवासी हैं। भारत हमारी रग-रग में है/ हो। भारत और अहिंसा, भारत और करुणा, भारत और अस्तित्व, भारत और सत्य पर्याय शब्द रहे हैं । बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने भारतीयता पर सीधा प्राणान्तक प्रहार किया है। निर्भारतीयकरण का सीधा मतलब है - भारतीयों को भारतीय परम्पराओं से स्खलित करना । व्यसनों का तेजी से बढ़ते जाना और सदाचारपूर्ण जीवन का लगातार लोप होना - भारी चिन्ता का विषय है। केंटुकी फ्राइड, चिकन, पीजा हट, मैकडोनाल्ड जैसी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने हमारे खान-पान की जो बुनियादी संरचना थी, उसे तार-तार कर दिया है। हमारे समुद्र तट पर शृंगार-प्रसाधनों की तकनीकों का जो जखीरा उतर रहा है उससे आनेवाली पीढ़ी में विचलन का सौ फीसदी संकट पैदा हो गया है। वह भारतीय संस्कृति को हेय और पश्चिम की संस्कृति को ग्राह्य मानने लगी है। मांसाहार, अण्डाहार, मत्स्याहार, शराबखोरी, धूम्रपान, नशीले पदार्थों का बेरोक-टोक सेवन और अब्रह्मचर्य के अन्धे दौर ने विकृतियों के लिए काफी बड़ी और लम्बी दरार उत्पन्न कर दी है। यह दरार हमारी सांस्कृतिक पराजय का सबसे बड़ा कारण बनने वाली है । '
इन संकटों का मूल कारण है मानव का सदाचार- विहीन जीवन । सदाचार- विहीनता का कारण है उसका व्यसनी होना । व्यसन मानव-जीवन, परिवार, समाज और राष्ट्र के लिए अभिशाप है; अमानवीय असामाजिक, अनैतिक हिंसक आचरण है; पतन का द्वार है । पतन से बचने के लिए, संकटों से मुक्त होने के लिए आवश्यक है कि हम मुनि कनकामर द्वारा करकंडचरिउ में प्रतिपादित व्यसन मुक्ति के सन्देश को वर्तमान सन्दर्भ में समझें । स्वयं को, अपने परिवार को व्यसनों से मुक्त रखने का प्रयास करें। व्यसन मुक्त होने पर ही तन-मन निर्मल एवं
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