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"अपने विकास-क्रम में दोहा दो काव्यरूपों में प्रयुक्त हुआ है - एक मुक्तक काव्यरूप और दूसरा प्रबन्ध प्रणयन की दृष्टि से, और दोनों ही रूपों में यह पश्चिमी अपभ्रंश का ही प्रभाव है। तभी तो राजस्थानी के 'ढोला-मारू-रा-दूहा' लोक-गीतात्मक-प्रबन्ध का प्राणाधार बना। पूर्वी अपभ्रंश में सिद्धों की परम्परा नौवीं-दसवीं सदी में नाथ-साहित्य में परिणत हुई, किन्तु इसमें भी दोहा-छन्द का प्रयोग नहीं मिलता। स्पष्ट है दोहा पश्चिमी अपभ्रंश का छंद है और वहीं से परवर्ती साहित्य में इसका विकास हुआ। इस प्रकार यह अपनी काव्य-यात्रा में एक ओर मुक्तक के रूप में जैनों के आध्यात्मिक और नीतिपरक साहित्य का वाहक बना, तदुपरि हिन्दी के मुक्तककाव्य को दूर तक प्रभावित किया और दूसरी ओर कभी अपभ्रंश की कड़वक-शैली के रूप में प्रबन्ध-प्रणयन की परम्परा को विकसित करता रहा तो कभी 'रोला' छन्द के साथ नूतन शिल्प का विधान करता रहा।"
"अपभ्रंश कवियों ने महाकाव्यों, चरितों और कथाकाव्यों में भरपूर वस्तु-वर्णन किया है। जौनपुर के शाही महल के वर्णन में विद्यापति ने भारतीय और मुसलमानी भवन-निर्माण कला की जानकारी का सूक्ष्म परिचय दिया है।"
"महापुराण पुष्पदन्त द्वारा रचा गया महाकाव्य है। इसमें जनपदों, नगरों और ग्रामों का वर्णन बड़ा ही भव्य बन पड़ा है। कवि ने नवीन और मानव-जीवन के साथ संबद्ध उपमानों का प्रयोगकर वर्णनों को बड़ा सजीव बनाया है।"
"अपभ्रंश के कवि जागरूक एवं सूक्ष्म-द्रष्टा कवि थे। वे जहाँ भारतीय वस्तु-वर्णन की शैली को पूर्णतः हृदयगंम किये थे, वहीं पर तुर्की जीवन-प्रणाली एवं वस्तु-वर्णन से भी परिचित थे। वे राजदरबारों की पद्धति, भवन-निर्माण कला, उद्यान, युद्ध, अस्त्र-शस्त्र आदि से पूर्णत: परिचित थे। अपभ्रंश साहित्य में जहाँ शृंगार के विविध रूपों का सूक्ष्म और मंजुल-मनोहर चित्रण मिलता । है, वहीं प्रशस्ति काव्यों का चमत्कारपूर्ण, टंकारभरी ओजस्वी चित्र भी देखने को मिलता है। इन्हीं कारणों से अपभ्रंश-साहित्य को मध्यकालीन भारतीय जीवन का सांस्कृतिक दर्पण कहा जाता है।"
"अपभ्रंश के खण्डकाव्यों में प्रकृति-वर्णन परम्परागत रूप में विषय की आवश्यकतानसार ही परिलक्षित होता है। काव्य-सौन्दर्य एवं वस्तु-वर्णन की दृष्टि से अपभ्रंशकालीन कवियों के ये वर्णन यथास्थान अपनी सार्थकता सिद्ध करने में समर्थ हैं।" __ "कतिपय अपभ्रंशबद्ध रचनाओं में 'संत' का-सा स्वर श्रुतिगोचर होता है। चरमलक्ष्य से विच्छिन्न फलतः विजड़ित एवं रूढ़ प्राय: आचार-बाहुल्य के प्रति एक तीखी प्रतिक्रिया और अन्तर्याग के प्रति लगाव का संत-संवादी विद्रोही स्वर कतिपय रचनाओं में विद्यमान है। पाहुडदोहा, योगसार, परमात्मप्रकाश, वैराग्यसार, आणन्दा, सावयधम्म दोहा आदि रचनाएँ ऐसी ही हैं। इनमें संत-संवादी मन:स्थिति का प्रभाव या प्रतिबिम्ब स्पष्ट दिखाई पड़ता है। जिसप्रकार अन्य रहस्यवादी रचयिताओं ने क्रमागत रूढ़ियों एवं बाह्याचारों का खण्डन करते हुए पारमार्थिक
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